नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं 6 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



कान्ह तुमहिं बिंनु रहत नहिं, तुम सौं क्यौं रहि जात।
अब तुमहूँ जनि जाहु, सखा इक देहु पठाई।
कान्हहिं ल्यावै जाइ, आजु अवसेर कराई।
छाक पठाऊँ जोरि कै, मगन सोक-सर-माँझ।
प्रात कछु खायौ नहीं, भूखे ह्वै गई साँझ।
कबहुँ कहति बन गए, कवहुँ कहि धरहि बतावति।
जागि परी दुख-मोह तैं रोवत देखे लोग।
तब जान्यौ हरि दह गिरयौ, उपज्यौ बहुरि बियोग।
धिक-धिक नंदहि कह्यौ, और कितने दिन जीहौ।
मरत नहीं मोहिं मारि, बहुरि ब्रज बसिबौ कीहौ।
ऐसे दुख सौं मरन सुख, मन करि देखहु ज्ञान।
ब्याकुल धरनी गिरि परे, नंद भए गिनु प्रान।
हरि के अग्रज बंधु तुरतहीं पिता जगायौ।
माता कौं परमोधि, दुहुँनि धीरज धरवायौ।
मोहिं दुहाई नंद की, अबहीं आवत स्याम।
नाग नाथि लै आइहैं, तब कहियौ बलराम।
हलधर कह्यौ सुनाइ, नंद जसुमति ब्रजबासी।
बृथा मरत किहिं काज, मरै क्यौं वह अबिनासी।
आदि पुरुष मैं कहत हौं, गयौ कमल कै काज।
गिरिधर का डर जनि करौ, वह देवनि सिरताज।
वह अबिनासी आहिं, करौ धीरज अपनै मन।
काली छेदे नाक लिए आवत, निरतत फन।
कंसहिं कमल पठाइहै, काली पठवै दीप।
एक घरी धोरज धरौ, बैठो सब तर-नीप।
ह्वाँ नागिनि सौं कहत कान्ह, अहि क्यौं न जगाधै।
बालक-बालक करति कहा, पति क्यौं न उठावै।
कहा कंस कह उरग यह, अबहिं दिखाऊँ तोहिं।
दै जगाइ मैं कहत हौं, तू नहिं जानति मोहिं।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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