नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं 11 -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



हरि हलधर तब मिले, हँसे मनहीं मन दोऊ।
मातु पिता ब्रज-लोग सौं, हरषि, कह्यौ नँदलाल।
आजु रहहु सब बसि इहाँ, मेटहु दुख जंजाल।
सुनि सवहिनि सुख कियौ, आजु रहियै जमुना-तट।
सीतल सलिल, सुगंध पवन, सुख-तरु वंसी वट।
नँद घर तैं मिष्ठान्न बहु, षटरस लिए मँगाइ।
महर गोप उपनंद जे, सब कौं दिए कन्हाई।
दुख कीन्हो सब दूरि, तुरत सुख दियौ कन्हाई।
हरष भए ब्रज लोग, कंस कौ डर बिसराई।
कमल-काज ब्रज मारती, कितने लेइ गनाइ।
नृप-गज कौ अब डर कहा, प्रगटयौ सिंह कन्हाइ।
नंद कह्यौ करि गर्व, कंस कौं कमल पठावहु।
और कमल जल धरहु, कमल कोटिक दै आवहु।
यह कहियौ मेरी कही, कमल पठाए कोटि।
कोटि द्वैक जलहीं धरे, यह बिनती इक छोटि।
अपनैं सम जे गोप, कमल तिन साथ चलाए।
मन सबकैं आनंद, कान्ह जल तैं बचि आए।
खेलत-खात-अन्हात ही, बासर गयौ बिहाइ।
सूर स्याम ब्रज-लोग कौं, जहाँ तहाँ सुखदाइ।।589।।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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