नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग धनाश्री



नारद कहि समुझाइ कंस नृपराज कौं।
तब पठयौ ब्रज दूत, पुहुप के काज कौं ।ध्रुव।
तब पठयौ ब्रज दूत, सुनी नारद-मुख-बानी।
बार-बार रिषि-काज, कंस अस्तुति मुख गानी।
धन्य-धन्य मुनिराज तुम भलौ मंत्र दियौ मोहिं।
दूत चलायौ तुरतहीं, अबहिं जाइ ब्रज होहि।
यह कहियौ तुम जाइ, कमल नृप कोटि मँगाए।
पत्र दियौ लिखि हाथ, कह्यौ, बहु भाँति जनाए।
काल्हि कमल नहिं आवहीं, तौ तुम कौं नहिं चैन।
सिर-नवाइ, कर जोरि कै,चल्यौ दूत सुनि बैन।
तुरत पठायौ दूत नंद घरही मैं पायौ।
‘‘कमल फूल के भार कंस नृप बेगि मँगायौ?
काल्हि न पहुँचै आइकै, तब बसिहौ ब्रज लोग।
गोकुल मैं जे सुख किए, ते करि दैहौं सोग।
जौ न पठावहु पुहुप, कहौगे तैसी मोकौं।
जानुह यह गोपिन समेत धरि ल्यावहु तोकौं।
बल-मोहन तेरे दुहुँनि कौं, पकरि मँगाऊँ कालि।
पुहुप बेगि पठऐं बनै, जौ रे बसौ ब्रज-पालि।’’
यह सुनि नंद, डराइ, अतिहिं मन-मन अकुलायौ।
यह कारज क्यौं होइ, काल अपनौ करि जान्यौ।
और महर सब बोलि कह्यौ, कैसौ करैं उपाइ।
प्रात साँझ ब्रज मारिहै, बाँधि सबनि लै जाइ।
बल- मोहन कौ नाम धन्यौ कह्यौ पकरि मँगावन।
तातैं अति भयौ सोच, लगत सुनि मोहिं डरावन।
यह सुनि सिर नाए सबनि, मुखहिं न आवै बात।
बार-बार नँद कहत हैं यह लरिकन पर घात।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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