नातरु सुनि दसकंध निसाचर -सूरदास

सूरसागर

नवम स्कन्ध

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राग मारू


 
मौकौं राम रजायसु नाहीं।
नातरु सुनि दसकंध निसाचर, प्रलय करौं छिन माहीं।
पलटि घरौं नव खंड पुहुमि तल, जौ बल भुजा सम्हारौं।
राखौं मेलि भँडार सूर-ससि, नभ कागद ज्यौं फारौं।
जारौं लंक, छेदि दस मस्त-क, सुर-संकोच निवारौं।
श्रीरघुनाथ-प्रताप-चरन करि उर तैं भुजा उपारौं।
रे रे चपल, बिरूप, ढीठ, तू बोलत वचन अनेरौ।
चितवै कहा पानि-पल्लव-पुट, प्रान प्रहारौं तेरौ।
केतिक संख जुगै जुग बीते मानव असुर-अहेरौ।
तीनि लोक बिख्यात बिसद जस, प्रलय नाम है मेरौ।
रे रे अंध बीसहू लोचन, पर-तिय-हरन विकारी।
सूने भवन गवन तैं कीन्हौ, सेष-रेख नहिं टारी।
अजहूँ कह्यौ सुनै जो मेरौ, आए निकट मुरारी।
अनक-सुता तैं चलि, पाइनि परि, श्रीरघुनाथ-पियारी।
‘’संकट परैं जो सरन पुकारौं, तौ छत्री न कहाऊँ।
जन्महि तैं तामस आराध्यौ, कैसें हित उपजाऊँ?
अब तौ सूर यहै बनि आई, हर कौ निज पद पाऊँ।
ये दससीस ईस-निरमालय, कैसैं चरन छुवाऊँ’’?॥132॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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