नागरी चरित पिय चकित भारी।
अंग की छबि निरखि प्रथमही बिबस ह्वै, बिंब निरखत देह सुधि बिसारी।।
एक राधा दूसरी वाहि जानि जिय, नागरी पास आवत लजाही।
नैन ठहराइ ठहराइ पुनि पुनि रहै, कहै नहि कछू हरषत डराही।।
पुनि उठत जागि देखै मुकुर, नारि कर, ललचात अंक भरि लैन लोरै।
'सूर' प्रभु भावती के सदा रस भरे, नैन भरि भरि प्रिया रूप चोरै।।2196।।