नहीं तुम्हारा अन्तर देखा -हनुमान प्रसाद पोद्दार

पद रत्नाकर -हनुमान प्रसाद पोद्दार

श्रीराधा माधव लीला माधुरी

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राग नट - तीन ताल


नहीं तुम्हारा अन्तर देखा, देखे नहीं भीतरी भाव।
भूलभरी अपनी आँखों से देखा बाहरका बर्ताव॥
भूल गयी मैं शील तुहारा सहज नित्य निर्मल निर्दोष।
अपने दृष्टि-दोषसे मुझको दिये दिखायी तुममें दोष॥
जाने लगे श्यामसुन्दर जब तुम मथुरा, हो रथ-‌आरूढ़।
लगी समझने निष्ठुर निर्दय प्रेमशून्य मैं तुमको मूढ़॥
यद्यपि तुम निज आत्मा-मनको छोड़ गये थे मेरे पास।
लोक-दिखा‌ऊ तनसे जाते भी, थे अतिशय खिन्न, उदास॥
मेरे शुद्ध प्रेम का करके जान-बूझकर तुम अपमान।
जाते हो, माना, अकुलायी, लगी चोट, भड़का अभिमान॥
प्रेमरहित मिथ्या अभिमानिनि मुझ कुटिला का यह दुर्भाव।
डाल न सका तुहारे निर्मल प्रेम-सूर्य पर किंतु प्रभाव॥
हु‌ए प्रकट, नित नव-वर्धन-सौन्दर्य कमल-मुख किये मलान।
अपराधी-से खड़े हो गये, मस्तक नीचा किये अमान॥
नित्य अधर मुस्कान मधुरयुत मदन-मनोहर नित्य किशोर।
क्यों हो रहे खिन्न यों? परमानन्द-सिन्धु मुनि-मानस-चोर॥
देख सहम मैं गयी, मलिन मुख-शशि, मन उमड़ा दुःख अपार।
बोल न सकी, बह चली नेत्रोंसे उत्तप्त अश्रु की धार॥
बोले-’अति अगाध प्रेमोदधि-रूपे हे राधे! सुख-खान।
तेरे गुण-सौन्दर्य-सुधा अनुपम से पोषित मेरे प्राण॥

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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