नवेली सुनि नवल पिय नव निकुँज है री -सूरदास

सूरसागर

दशम स्कन्ध

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राग कल्यान


नवेली सुनि नवल पिय नव निकुँज है री।
भावते लाल सौ, भावती केलि करि, भावती, भाव तै रसिक रस लै री।
त्यागि अभिमान, गुन-रूप-सौभाग-रति, मानिनो, मान हरि मैन सुख दै री।
एक व्रजवास, आवत जात देखियत, आपनी जाति पति पैड की धैरी।।
ललित उद्दार हित पीर करि, कोर-मति-घोर तनु, मेटि मनमत्य को भै री।
कला चौसट्ठि, सगोत, सिंगार रस, कोक-बिधि-बँद प्रगटि भेद सै सै री।।
सुरति सगर साजि, स्रवत जस रस लाजि, अंग अनुकूल रतिराज रन जै री।
कामसर कनककुच प्रगट भृंगी चिह्न दागि, मेलै कंत आपनो कै री।।
जासु आलाप सुनि, दारु सोउ पल्लवै, पुहुए, मधुधार फलमार भरि नै री।
मुरलिका गान तुव नाम मधुराधुनो, सुधा-गुन-सिंधु नहिं गनति निज मैं री।।
हीन जल मीन ज्यौ दरस बिनु कलमलै प्रान, प्रीतम नही धीरज धरै री।
प्रीति की रीति गति प्रान चंचल करति, निरखि नागर नयन चुंबकऽस्मैरी।।
अधर मधु लोभ पंथान चितवत चकित, कमल-गुत्लाल-दल-तल्प बिरचै री।
अरुन सीतल मृदुल पाद तल सरि करत सेज चढि, दलमलहि री बरन बैरी।।
तुव काम केलि कमनीय कामिनी बृंद चंद्र, चकोर, चातक, स्वाति तै री।
'सूर' सुनि स्रवन, तजि भवन कियो गवन, मनरवन तन, तबहि कालहंस गति गै री।।2453।।

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