नरहरि-नरहरि, सुमिरन करौ7 -सूरदास

सूरसागर

सप्तम स्कन्ध

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राग बिलावल
श्री नृसिंह अवतार


इंद्रादिक जातैं भय करयौ। सो मम पिता मृतक ह्वै परयौ।
साधु-संग प्रभु मौकौ दीजै। तिहि संगति निज भक्ति करीजै।
और न मेरी इच्छा कोइ। भक्ति अनन्स तुम्हारी होइ।
और जो मो पर किरपा करौ। तो सब जीवनि उद्धरौ।
जो कहौ, कर्म भोग जब करिहैं। तब ये जीव सकल निस्तरिहैं।
मम कृत इनके बदलै लेहु। इनके कर्म सकल मोहिं देहु।
मोकौं नरक माहिं लै डारौ। पै प्रभु जू, इनकों निस्तारौ।
पुनि कहयौ, ‘‘जीव दुखित संसार। उपजत-बिनसत बारंबार।
बिना कृपा निस्तार न होइ। करौ कृपा, मै माँगत सोइ।
प्रभु, मै देखि तुम्है सुख पावत। पै सुर देखि सकल डर पावत।
तातैं महा भयानक रूप। अंतर्धन कौर समर-भूत।
हरि कहयौ,‘‘ मोहि बिरद लाज। करौ मन्वन्तर लौ तुम राज।
राज-लच्छमी-मद नहिं होइ। कुल इकीस लौं उधरैं सोइ।
जो मम भक्त के मग में जाइ। होइ पवित ताहि परसाइ।
जा कुल माहि भक्त मम होइ। सप्त पुरुष लौं उधरे सोइ।
पुनि प्रहलाद राज बैठाए। सब असुरनि मिलि सीस नवाए।
नरहरि देखि हर्ष मन कीन्हौ। अभयदान प्रहलादहिं दीन्हौ ।
तब ब्रह्मा विनती अनुसारी ।‘‘महाराज, नरसिंह, मुरारी।
सकल सुरनि कौ कारकज सरौ। अंतर्धान रूप यह करौ।
तब नरहरि भए अंतर्धान। राजा सौं सुक कहयो बखान।
जो यह लीला सुनै-सुनावै । सूरदास हरि भक्ति सो पावै।।2।।

    

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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