नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
15. शुक्राचार्य–श्रीधर विप्र
आज्ञा भी कैसी? कसं ने कहा कि श्रीधर गोकुल जाकर नन्हें नन्दनन्दन को मार दे और श्रीधर ने शिशु-हत्या का यह कुत्सित कार्य स्वीकार कर लिया! उसमें साहस नहीं आया कि कंस को कठोरतापूर्वक मना कर देता। वह भी क्या ब्राह्मण जो प्राण-भय से काँपे अथवा कायिक सुख-सुविधा जिसे क्रीत-सेवक बनाकर कुकृत्य में लगा सके। कंस की नीतिज्ञता में दोष नहीं था। वह अपने शत्रु को किसी भी प्रकार नष्ट कर देने की मेरी उपदिष्ट नीति का आचरण कर रहा था। गोप, गोपियाँ परम श्रद्धालु हैं। श्रीधर का वे विप्र होने के कारण सम्मान ही करेंगी, यह कंस ने ठीक सोचा था। श्रीधर कुछ अनुचित भी कर बैठे तो उस पर गोप हाथ उठाने का साहस नहीं करेंगे, यह भी कंस का विचार असंगत नहीं था। श्रीधर के सोचने की बात थी। राजा सोचे और आदेश दे तो उसका पालन सेवक करेगा। राजा अपनी समस्या सुनाकर उससे उबर आने का उपाय पूछे तो पुरोहित मार्ग-निर्देश करेगा। पुरोहित स्वयं तब यजमान के पक्ष में सक्रिय होता है, जब यजमान की सब शक्तियाँ असमर्थ हो जायँ। कंस के सब असुर जीवित थे और श्रीधर स्वयं आज्ञापालक सेवक बनकर चल पड़ा! छि∶! मेरी सहानुभूति उससे समाप्त हो गयी उसी क्षण। ब्राह्मण शाप दे सकता है, शस्त्र उठा सकता है, समय ही आ पड़े तो अभिचार कर सकता है∶ किंतु अपकर्म, पापकर्म, ब्राह्मण के वश की बात नहीं होनी चाहिए। श्रीधर ने शिशु-हत्या का संकल्प स्वीकार किया और अपने ब्राह्मणत्य से ब्रह्म-तेज से च्युत हो गया। अब इस असुर ब्रह्मबन्धु के समीप कोई भी दिव्य सहायता पहुँचा कैसे सकता था? भगवान नारायण से मैं सृष्टि के प्रारम्भ से ही परिचित हूँ। मेरा दुर्भाग्य कि मुझे अपने यजमानों का समर्थन करना पड़ता है और वे श्रीहरि के विरोधी हैं; किंतु उन अनन्तशायी का स्नेह है मुझ पर- यह मैंने बार-बार अनुभव किया है। अन्तत∶ सिन्धु-सुता मेरे आदि पूर्वज पितामह भृगु की पुत्री हैं। वे मेरी बुआ ही होती हैं। मैं हृदय से हरि का श्रद्धालु हूँ- सेवक हूँ- भले भगवान भवानीनाथ मेरे आराध्य हैं। अब यह गोकुल में जो इन्द्रनीलमणि नन्दनन्दन है, यह नित्य अविनाशी सर्वकलामय- मैं कोमल कला का अधिदेवता होने के कारण इसका अनुचर हूँ। मैं नीति का निर्देशक होने के कारण इस निखिल नीति-निर्धारक का अनुगामी हूँ और जहाँ तक मेरे ग्रह होने की बात है इसके शत्रु-स्थान में उच्च के अपने परम मित्र शनि के साथ स्वगृही बैठा इसे सुख, स्वास्थ्य, सुयश तथा सब सुविधाओं को देने में सदा सावधान रहूँगा। श्रीधर अभागा इसका विरोधी बनकर मेरे साथ बैठे शनि की दृष्टि का भोग बन गया तो मुझे उससे क्यों सहानुभूति होने लगी। |
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