नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
87. महाभानु बाबा-कुरुक्षेत्र से लौटे
'बालिकायें सब जायँगी!' भाई ने स्थिर कण्ठ से कहा- 'वे सब नन्दराय के साथ जायँगी। अब भी तो वे अधिकांश नन्द-भवन में ही रहती हैं। हम सब नहीं जायँगे तो वे अधिक निःसंकोच रहेंगी। भगवती पूर्णमासी जा ही रही हैं। नन्दरानी का इन सब पर अपार वात्सल्य है। उनके साथ इन्हें कोई असुविधा नहीं हो सकती।' मैं समझ गया कि भाई ने नन्दराय से सब पहिले निश्चित कर लिया है। मुझे साग्रह कहा उन्होंने कि यदि मैं जाना चाहूँ तो पत्नी के साथ यात्रा कर सकता हूँ; किंतु भाई से पृथक तो मुझे बैकुण्ठ भी नहीं जाना। नन्दनन्दन के श्रीमुख को देखने की लालसा क्या इनके मन में कम होगी मुझसे? लेकिन जिस कर्तव्य के लिये ये यहाँ रहते हैं, वह मेरा कर्तव्य पहिले है। मैंने स्पष्ट कह दिया कि मैं इनके साथ ही रहूँगा। सम्पूर्ण व्रज के गोधन को सम्हालना भी तो है। अब नन्दराय क्या पावस से प्रथम आने वाले हैं। नन्दराय चले गये। नन्द-व्रज के प्रायः सभी गये ग्रहण-स्नान करने। हमारे बालक और बालिकायें भी गयीं। लगा कि व्रज सूना हो गया। हम तो फिर मनुष्य ही हैं, पशु-पक्षी तक व्याकुल हो गये। गायें गोष्ठों से छूटते ही भागती थीं, उसी पथ की ओर जिधर शकट गये थे पर्व-यात्रियों के। बार-बार उन्हें रोककर वन में लाना पड़ता था। सायंकाल गोष्ठ में उनको लाना बहुत कठिन हो गया। उन्होंने कठिनाई से तृणों में मुख लगाया और दौड़ीं- यह दैनिक क्रम बना लिया सबने। सूखकर सब कंकाल हो गयीं। 'नन्दराय लौटेंगे तो क्या सोचेंगे?' भाई ने एक दिन सचिन्त कहा- 'कोई कुछ नहीं सोचेगा, कुछ नहीं कहेगा, यह सत्य समझते हुए भी सन्तोष नहीं होता। हम किस मुख से कंकालप्राय गोधन उन्हें सौंपकर कहेंगे कि- 'इतने समय में दो चुल्लू दूध भी हम उनकी लक्ष-लक्ष गायों से नहीं पा सके। उनको देने को हमारे समीप अपना भी तो घृत-नवनीत[1] नहीं है। हमारे गोधन की भी तो वही दशा है।' 'हम इन्हें जीवित दे सकें, यही हमारा सौभाग्य होगा।' मैं और क्या उत्तर देता। हम कुछ कर नहीं सकते थे। गायें रात-दिन नेत्रों से अश्रु गिराती थीं। सद्यःप्रसूतायें भी अपने बछड़ों को थनों से कठिनाई से लगने देती थीं। केवल हुंकार-क्रन्दन के समान हुंकार करती रहती थीं सब। हमारे बालक या बालिकायें गोष्ठ में जाती थीं तो इन गायों के स्तनों से झरते दूध से घड़े भरते थे और आज इनकी ओर देखा तक नहीं जाता। इनकी ही बात क्यों करूँ-वनपशु-पक्षी सब तो ऐसे हो गये हैं जैसे सबको कोई असाध्य दीर्घ रोग हो गया हो। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ माखन
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