नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
9. मैया यशोदा-सीमन्तन
मुझे इच्छा होती है और व्रजपति के गृह में तो सदा सहज इसकी पूर्ति होती ही रही-हो रही है। शत-शत ब्राह्मणों का पूजन करके उन्हें भोजन कराने और उनको जो वे चाहें देते रहने की इच्छा होती है। मैं यह नित्य-नित्य कर रही हूँ। लोग जो माँगें-दिया जाय उन्हें, यह इच्छा होती है; किंतु जीजी तो इससे कहीं अधिक उदार हैं। वे आये याचक को इतना-इतना दे देती हैं कि उसके लिए कुछ कहने-माँगने को रह नहीं जाता। वे देती रहती हैं और मुझे देख-देखकर आह्लाद होता है। वे इसे जानती हैं, अत: याचकों को बुला-बुलाकर देती रहती हैं मेरे सामने। मुझे इच्छा होती है कि कहीं कोई दु:खी, दीन, रोगी, अभावग्रस्त न रहे। मैंने सुना ही है कि मनुष्य ऐसी दु:खद स्थिति में भी पड़ते हैं; किंतु मैंने कभी गोकुल में ऐसी अवस्था नहीं देखी। मुझे इच्छा होती है- सब सुप्रसन्न, सन्तुष्ट, सुखी रहें और सदा आनन्द-मंगल मनावें। अपने गोकुल में मैं यह देख ही रही हूँ। इन दिनों तो लगता है कि मैं सारे संसार को ही सुख दे रही हूँ। मुझे इधर वाद्यों में मुरलि का बहुत मधुर, अत्यन्त प्रिय लगने लगी है; किंतु पता नहीं क्या बात है, किसी-का भी वेणु-वादन मुझे ऐसा नहीं लगता कि बस यही पराकाष्ठा है। गन्धर्व-कन्याएँ तक मुझे मुरली सुनाती हैं। लेकिन यह मधुमंगल हँसकर कूदने लगता है- 'मैया! मुरली केवल मेरा सखा बजा सकता है। यह उसी का वाद्य है। दूसरे क्या जानें वेणु-वादन।' गोप-कन्या को माखन, मिश्री, दही, छाछ तो स्वभाव से ही प्रिय होता है; किन्तु इन दिनों दूसरे पदार्थों की ओर देखने को भी मन नहीं करता। ऐसा तो कभी नहीं था। गोरस में ही खेलते-खाते तो जन्म से बसी रहे, उसके लिए यह विचित्र बात तो है ही। महर पूछते हैं, वृद्ध गोप पुछवाते हैं, सुर और सुरांगनाओं तक ने पूछा बार-बार- 'मैं क्या लूँगी?' मैं किसी को क्या कह दूँ। मुझे तो लगता है कि मैं देनेवाली हूँ- देना चाहिए-सबको देना चाहिए। मैं देने-देने के लिए ही हूँ। लेने की चर्चा मुझसे क्यों? आजकल तो मेरा अन्तर-बाह्य अकल्पित आनन्द से, अदभुत ऐश्वर्य के भाव से भरा हुआ है। आनन्द और ऐश्वर्य मेरे भीतर से उच्छलित हो रहा है। |
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