नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
80. ग्रामदेव-अक्रूर आये
बालिकाओं की व्यथा मैं कैसे कहूँ। मैं अपनी ही व्यथा से विक्षिप्त हो रहा था। वे सब मूर्च्छित हो गयीं। सब पुनः दौडीं रथ के पीछे और गिर पड़ीं भूमि में। जब तक रथ दीखता रहा, रथ की ध्वजा दीखती रही, रथ से उड़ती धूलि दीखती रही, वे उधर ही अपलक देखती मूर्तियों की भाँति खड़ी रहीं। जब धूलि भी दीखना बन्द हुआ, एक साथ सब गिरीं- 'हाय! वे चले गये।' धूलि धूसरिता वृन्तच्युता पद्मिनियों के समान म्लानवदना, मूर्च्छिताप्राय इन बालिकाओं को इनकी माताएँ किसी प्रकार अंक में उठाकर गृहों को लौट रही हैं। उनको आश्वासन देना है। इनको किसी प्रकार सचेत करना है। नन्दग्राम का अधिदेवता होकर मुझे यह दुर्भाग्यपूर्ण दिन भी देखना पड़ा। ऐसा दिन जिसके दुःख, पीड़ा व्यथा का वर्णन सम्भव नहीं। व्रज में आज पशुओं, पक्षियों, पिपीलिका तक ने आहार या जल मुख में नहीं लिया। |
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