नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
79. गायत्री-केशी-क्रंदन
मुझे आश्वासन प्राप्त हुआ जब स्वयं परात्पर परमप्रभु प्रकट हुए पृथ्वी पर। अब ये भू-मार हरण करने पधारे हैं तो मेरी विपत्ति बची नहीं रहेगी। गोकुल से ये वृन्दावन आये तो मैं और आश्वस्त हो गयी; क्योंकि असुर अश्व केशी अब बहुत दूर नहीं बचा था। देवर्षि नारद ने कंस को यह सूचित करके कि 'बलराम और कृष्ण वसुदेव के पुत्र हैं; श्रीकृष्ण देवकी के अष्टम पुत्र हैं जिन्होंने कंस के अनुचरों को मारा' उसे अत्यन्त व्याकुल बना दिया। वह पहिले से सन्देह करने लगा था कि उसका काल व्रज में नन्द भवन में ही है, अब देवर्षि ने दृढ़ कर दिया इस बात को। देवर्षि भयभीत न कर देते तो वह तत्काल वसुदेव देवकी को मार देता।[1] उन दोनों को पुनः बन्दी किया उसने और केशी को तत्काल मथुरा बुलाकर व्रज भेज दिया। कंस अब अपनी विपत्ति को किसी प्रकार बचे नहीं रहने देना चाहता था। वह वही सब कर रहा था जो मृत्युग्रस्त प्राणी प्रारब्ध-प्रेरित अपने मरण के सब संयोग प्रस्तुत करने के लिए करता है और समझता है कि वह सुरक्षा के साधन संग्रह कर रहा है। कंस कुछ भी करे, मेरी इसमें कोई रुचि नहीं है अब यह तो स्वयं अपनी मृत्यु को आमंत्रित करने के लिए अक्रूर को नियुक्त कर चुका। मेरी रुचि है केशी के निधन में। यह असुर घोटक मर जाय तो मैं वेदों की सुरक्षा की ओर से निश्चिन्त हो सकती हूँ। मथुरा में कंस की मंत्रणा सभा से केशी रात्रि के प्रथम प्रहर में लौट सका। अपने वन में इसने रात्रि व्यतीत की। अपने आसुरी-स्वभाव के विपरीत प्रात:काल शीघ्र उठा और व्रज की ओर चल पड़ा। आसन्न मृत्यु प्राणी ऐसे ही अपने सहज स्वभाव के प्रतिकूल आचरण करने लगते हैं। केशी अनेक दिनों से आहार न मिलने से भुक्षित था। कंस ने भी कुछ दिया नहीं; उल्टे एक प्रतिबन्ध लगा दिया- 'नन्द पुत्र को पहिले समाप्त करने के अनन्तर वहाँ चाहे जितने आखेट करना; किंतु उससे पहिले और किसी को मारना मत! केवल आतंकित करना औरों को। मैं जानता हूँ कि तुम भरपेट खा लेने पर शिथिल हो जाते हो। तुम्हें सो जाने की सूझने लगती है। तुम्हारी इसी दुर्बलता के कारण मैं तुम्हें पराजित कर सका था। मैंने तुम्हारे सम्मुख तब तक साधारण सैनिक और अश्व भेजे, जब तक तुम उनका भक्षण करते रहे। जब तुम्हारे पेट भर जाने का अनुमान हो गया तब मैं तुम्हारे सम्मुख गया और मुझसे पराजित हो गये थे। पुनः यही भूल व्रज में मत कर बैठना!' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह चरित 'भगवान वासुदेव में' गया है।
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