नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
78. मंगल-अरिष्ट-संहार
इस बार दो पद आगे बढ़ गये ये मधुसूदन सखा के स्कन्ध से बाहु उठाकर। अरिष्ट के दानों सींग पकड़कर उमेठने लगे असुर की भारी मोटी गर्दन मुड़ी और वह भूमि पर गिर पड़ा। उसकी गर्दन भीगे कपड़े के समान उमेठी जा रही थी। उसके मस्तक पर नन्दनन्दन ने दोनों सींगों के मध्य दक्षिण चरण जमाया और सींग बलपूर्वक उखाड़ लिये। उन सींगों से ही पीटकर मार दिया अरिष्ट को। नेत्र निकल आये। मुख से फेन और रक्त निकलने लगा। गर्दन की अस्थि टूट गयी। सींगों के स्थान से रक्त की धारा चलने लगी। गोबर त्यागकर अपने ही रक्त में लथपथ अरिष्ट पैर, पूँछ फट-फटाकर शान्त हो गया। यह अधम भूमि-पुत्र अरिष्ट अपने रक्त में सना भूमि पर मरा पड़ा है। श्रीकृष्णचन्द्र ने अपनों के लिए सदा को मार दिया अरिष्ट को। मैं अपने इस अनुज पर गर्व कर सकता हूँ। यह अब गोलोक में इन व्रजराजकुमार के गोष्ठ का महावृषभ बनने चला गया। क्या हुआ कि वहाँ कृष्णकाय रहेगा। हिम-धवल धम भी अब इसकी स्पृहा-स्पर्धा कर सकता है। मैं मंगल तो रक्त-प्रवाही हूँ। अरिष्ट के रक्त से चर्चित नन्दनन्दन का यह दक्षिण चरण मैंने देख लिया है। जिसके मानस में इसकी किञ्चित छाया भी आवेगी, यह धरासुत मंगल सदा उसके सानुकूल परम मंगल प्रस्तुत करेगा। अरिष्ट तो मर गया। गोप-कुमार अपने सखा को आलिंगन देने लगे हैं। मधुमंगल कहता है- 'कनूँ! तूने साँड़ मारा है, अतः स्नान कर और मेरे जैसे सम्मान्य ब्राह्मण को श्रद्धा सहित मोदकदान कर!' 'पण्डितजी! आपकी सब बात तो ठीक; किंतु सुबल हँसने लगा है- 'आपको आज साँड़ का दान स्वीकार करना चाहिये।' 'साँड़!' मधुमंगल मरे काले अरिष्ट को सभय नेत्रों से घूरता है- 'साँड़ महर्षि शाण्डिल्य को दे देना मैं केवल मोदक से सन्तुष्ट हो जाऊँगा।' श्रीव्रजराज समीप आ गये हैं। बालकों को सचमुच स्नान कराने ले चले। गोप गोष्टों में अपनी गायें, वृषभ, बछड़े हाँककर ले जाने में लग गये अरिष्ट का शव तो अन्त्यज उठा ले जायँगे। अब कहीं मैया व्रजेश्वरी को पता लगा है कि उनका नीलमणि सखाओं के साथ सुरक्षित है। वह बाबा के साथ स्नान करने चला गया। मैया को यह अच्छा नहीं लगता। बालक इस फाल्गुन के कृष्ण पक्ष में रात्रि स्नान करें, आवश्यक तो नहीं था; किंतु व्रजराज से कुछ कहा नहीं जा सकता। बालकों के ब्यालू की व्यवस्था में लगी इन व्रजेश्वरी के पावन पदों में मेरी प्रणति। |
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