नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
78. मंगल-अरिष्ट-संहार
कंस लगभग हताश हो गया था। उसके सब कूट प्रयत्न विफल हो गये थे। व्रज जाकर पुनः कोई असुर बना नहीं रह सकता, यह सीधी बात उसकी समझ में नहीं आ रही थी। वह व्याकुल था। अरिष्ट ने स्वयं उसे आश्वासन दिया और अपने आप ही व्रज की ओर चल पड़ा। अन्ततः बैल का बुद्धि से क्या काम। वह भी असुर बैल- तामसी बुद्धि उसे क्या बतलाने वाली थी। अरिष्ट ने कोई छल नहीं किया। माया का आश्रय लेकर आने वाले मारे गये, यह जानता था। उसे अपनी महाकाया का अभिमान था। सचल काले पर्वत के समान काया-ककुभ को पर्वत समझकर मेघ उस पर उतर आते थे, इतना ऊँचा, सुदृढ़ तीक्ष्ण श्रृंग। अपने अहंकार में मत्त सूर्यास्त के लगभग डेढ़ घण्टे पश्चात् नन्द व्रज के समीप पहुँचा। समय अपने अनुकूल चुना था इसने; क्योंकि रात्रि में असुरों का बल बढ़ जाता है। अगले खुरों से मानो पृथ्वी को खोद ही डालेगा, ऐसा उत्साह- मुझे क्रोध तो इसके इसी कर्म पर आ गया। यह संघर्ष करने आया और जहाँ संघर्ष है, मेरी दृष्टि तो वहाँ है ही। मैंने श्रीव्रजराजकुमार से षष्ट होकर असुर के साथ षटाष्टक योग साध लिया इसके अष्टम भाव को अपनाकर। भयंकर गर्जना- साँड़ के किसी हँकड़ने से समता नहीं। मस्तक झुकाकर सींगों से पुर की वाह्य परिखा का बड़ा भाग फेंक दिया इसने। अरिष्ट आया तो कुछ अनर्थ अवश्यम्भावी बन गया था। गोप व्याकुल हुए। गायों और वृषभों का समूह गोष्ठों के अर्गला तोड़ कर वन की ओर भागा। अरिष्टासुर का सदा का स्वभाव- असुर क्यों देखे कि कौन-सी गाय वृषभ-कामा हुई है। वह तो गर्भिणी, सद्यः प्रसूता सभी गौओं को समान मानता रहा है। गायों पर चढ़कर उनका गर्भपात कर देना, उन्हें असह्य पीड़ा देकर मार देना ही इसका व्यसन रहा है। वृन्दावन की वाह्य परिखा सींगों से फेंककर गोष्ठों के वप्र गिराने लगा। गायें इसके समीप आने से पूर्व ही भाग चलीं वन की ओर। गायों के पीछे कम ही भागा आज वह असुर। आज तो इसे इसका काल हाँक लाया था। एक से दूसरे गोष्ठ के वप्र गिराता हँकड़ता, फुफकारता दौड़ता बढ़ रहा था। 'भागो! साँड़- असुर साँड़ आ गया!' गोप चिल्ला रहे थे- गायों, वृषभों को भगा दो वन की ओर!'[1] गायें व्याकुल चिल्ला रही थीं। वृषभ बछड़े सब भय-क्रन्दन करते भाग रहे थे। श्रीव्रजराजकुमार वन से लौटकर आये थे और सांयकालीन गोदोहन समाप्त करके अभी सखाओं के साथ ब्यालू करने ही जा रहे थे। यह कोलाहल सुनते ही भवन से बाहर भागे। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ तिब्बत में अब भी जंगली याक (चमरी) जब कभी वहाँ के पशु पालकों के पास आ जाता है, महान आतंक उत्पन्न करता है। मनुष्यों कुत्तों को खुरों से खूंद-खूंदकर मारता है। बन्दूक की 14 से 20 गोली खाकर भी लड़ता है। मादा-याक मिलने पर उन्हें लेकर लौटता है।
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