नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
77. सुदेवी-प्रमुख सखियों का परिचय
'प्रभु, इस अष्टदल को आवृत किये जो द्वादशदल रहता है, मेरी अवस्थिति उसमें है।' मैंने मस्तक झुका कर कहा- 'यद्यपि इसमें हम अनेक श्रीकीर्तिकुमारी की ही अन्तरंगा है। किंतु इस आवरण की प्रधाना हैं श्रीचन्द्रावलीजी। वे श्यामसुन्दर की प्रीति-भाजना, श्रीवृषभानु-नन्दिनी चचेरी अग्रजा भगिनी हैं। स्वयं किशोरीजी उनका सम्मान करती हैं तो हम तो अपनी स्वामिनी की अनुगता हैं। चन्द्रवलीजी, मैं सुदेवी, तुंगविद्या और चित्रा उत्तर में, माधवी, रूप मंजरी, भद्रा और चम्पकलता पूर्व में, चन्द्रा, चित्ररेखा, मदनसुन्दरी और मधुमती दक्षिण में तथा इन्दुलेखा, चन्द्ररेखा, चन्द्रावती और कृष्णप्रिया पश्चिम में अवस्थित होती हैं। हमारे पीछे पोडषदल पद्म है। उसके पीछे चतुर्विंशति दल, उसके पीछे द्वित्रिंशति दल, फिर चतुःषष्ठी दल। उसको आवृत करके शतदल और उसके बहिर्भाग में सहस्र दल। 'वत्से! इतना विस्तार ही बहुत है।' भगवान पशुपति मुझे बीच में वारित न करते तो मैं गणना सुनाती जाती। यद्यपि जानती हूँ कि मेरी स्वामिनी की सखियों की संख्या कर पाना सम्भव नहीं है। हमारे रसिक-शेखर सभी समुत्सुकाओं को अपना लेते हैं और हमारी स्वामिनी तो केवल कृपामयी हैं। इन्हें अस्वीकार करना ही नहीं आता। कोई यूथेश्वरी, कोई किंकरी किसी को ले आवे, कोई स्वयं कभी इन्हें पुकार बैठे तो ये चाहती हैं कि मयूरमुकुटी अविलम्ब उसे अपना कर प्रदान कर दें। 'तुम सबको श्रीराधा की सेवा प्राप्त हुई, यह तुम्हारा सौभाग्य है!' प्रभु पुरारि ने मुझे विदा दी स्नेह पूर्वक। हम सेवा कहाँ कर पाती हैं। हमारी स्वामिनी तो चाहती हैं कि श्यामसुन्दर हम सबको ही प्रधान मानकर अपनी सन्निधि- अपनी प्रीति प्रदान करते रहें। इन आह्लादिनी को यही समझ में नहीं आता कि हम सबका परम सुख परम सौभाग्य इनको रसिकशेखर के साथ देखते रहना और इनकी सेवा करना है। संगीत, वाद्य, हास्य-विनोद, ताम्बूल-दान, जल, निकुंज श्रृंगार-अत्यल्प सेवा है और हममें-से प्रत्येक प्रयत्न करती रहती हैं कि उसे अधिकतम अवसर सेवा का प्राप्त हो। मुझे किसी से स्पर्धा नहीं है। अन्तरंगा अष्ट सखियों में-से किसी की भी सेवा-किञ्चित भी सहायता मैं कर सकूँ, यही मेरा सौभाग्य। वैसे सखी ललिता मुझे अपनी अनुजा के समान स्नेह देती हैं और इसलिए स्वामिनी की सेवा मुझे सुलभ हो जाती है। |
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