नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
75. दानवेन्द मय-अजगर उद्धार
'मुझे भूख लगेगी तो ले लूँगा!' मैं जानता हूँ कि इनके आनन्दघन श्रीविग्रह को क्षुधा-पिपासा स्पर्श नहीं करती; किंतु यह सुकुमार शरीर देखकर तो मुझ दानव का मन भी व्यथित होता है। मेरे कृपामय आराध्य को इनके व्रत की आवश्यता कहाँ है। लेकिन ये मानेंगे नहीं। गोपों का, गोपियों का उत्साह, इनकी श्रद्धा समझ में आती है, परन्तु ये श्रीव्रजराजकुमार नन्हें बालकों के साथ व्रत कर रहे हैं और इतने स्फूर्तिमय, उल्लसित हैं! भगवान धूर्जटि इसीलिये तो साश्रुलोचन गद्गद स्वर बार-बार कहते हैं- 'वत्समय! स्मरण रखना कि त्रिनेत्र शिव केवल शरीर हैं। इसकी श्वास- इसकी चेतना, इसकी आत्मा श्रीकृष्ण हैं!' व्रज आकर मुझे आज सुयोग प्राप्त हो गया। मैं अदृश्य रहकर इन मयूरमुकुटी- इनके समस्त स्वजनों के पीछे अपने शशि-शेखर आराध्य की अर्चा इस शिवरात्रि को सम्पन्न कर सकूँगा। ये जिस श्रीविग्रह की अर्चा करेंगे, मेरे स्वामी आज सम्पूर्ण रूप से उसी में आसीन रहेंगे, यह असंदिग्ध सत्य है। तब मय गोपेश्वर अथवा अन्य किसी विग्रह की अर्चा करने क्यों जाय। सखाओं के साथ व्रजराजकुमार व्यस्त हैं आराधना के लिए स्वयं सामग्री-संग्रह में। इन्होंने श्रीनन्दराय से आग्रह किया- 'बाबा! मैं एकादश दलों के विल्वपत्रों से पूजन करूँगा।' 'मैं भी इससे कम या अधिक दलों के विल्वपत्र नहीं लूँगा।' भद्र ने कह दिया। 'तुम सब केवल एकादश दल के विल्वपत्र ही लेना!' व्रजराज की आशंका उचित है। इन बालकों को विल्ववन में नहीं जाने देना चाहिये। कितने कठिन कण्टक होते हैं विल्व के और बालकों से सावधानी की आशा तो नहीं की जा सकती। मय यह सेवा कर पाता! लेकिन देख आया हूँ कि विल्ववन में प्रायः एकादश दल के विल्वपत्र ही हैं। गोप अन्य किसी द्वारा आहृत सामग्री स्वीकार नहीं करेंगे। 'मैं अर्क पुष्पों की माला बनाऊँगा!' वरूथप ने कहा। 'मैं तिहारे धतूरे के पुष्प लाऊँगा और फल भी!' श्रीकृष्णचन्द्र ने ताली बजायी। 'वत्स नीलमणि! तुम सब मिलकर यूथिका के नन्हे सुमन-संग्रह करो! मैं तुम सब के लिए माल्य ग्रन्थन कर दूँगी।' माता रोहिणी ने बालकों का ध्यान दूसरी ओर आकर्षित किया- 'अर्क पुष्प, धुस्तूर फल एवं सुमन सेवक लाने चले गये हैं।' बालक नेत्रों में अर्क-दुग्ध लगे कर लगा ले सकते हैं और वह दुग्ध तो नेत्रों को दुःसह व्यथा देता है। धुस्तूर के कण्टकित फल इनके सुकुमार करों को कष्ट देंगे। रोहिणी देवी की सावधानी ने मुझे प्रसन्न किया। मुझे भी इससे प्रेरणा प्राप्त हुई। मैं सरस्वती सलिल में पुण्य गन्ध स्वर्ण-पद्मों की राशि प्रकट कर सकता हूँ। गोप सरलता से उन्हें स्वयं विकसित मानकर सञ्चय कर लेंगे। इतनी सेवा तो मेरी स्वीकृत हो ही जायगी। बालक स्वर्ण पात्र लेकर यूथिका-सुमन-संग्रह करने में लग गये हैं। यूथिका के नन्हें, श्वेत, सुकुमार सुसौरभ सुमनों को सञ्चित करने में इनको भी उल्लास है और ये पुष्प इनके पद्मपाणि से चयन होने योग्य भी हैं। इनकी माला मेरे आराध्य महेश्वर को परम प्रिय है। |
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