नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
8. भगवान भास्कर-श्रीराधा-जन्म
कीर्तिदा का गर्भजात कुमार-यह सुबल अपनी अनुजा के लगभग साथ ही आया है; किंतु वह आयोनिजा कीर्ति-कन्या, वह तो लो प्रकट हो गयी देवालय में। उसे तो केवल अंक में उठाना है कीर्तिरानी को और वह इतना भी अवसर किसे देती है। धन्य धरा! इस सौकुमार्य की साकार मूर्ति के सुकोमल चारु-चरण सचमुच कठोर धरित्री का स्पर्श सहन करने में सक्षम नहीं थे। तुमने अपना हृदय प्रकट किया। प्रफुल्ल पद्म रुप में इसके पाद-निक्षेप के लिए और यह तो स्वयं मातृ-अंकारुढा हो गयी है। अब संसार के लोग तो समझेंगे ही, वृषभानुजी समझें कि उनकी सहधर्मिणी ने युग्म सन्तति दी है। युग्मज के अनुरूप-सर्वथा अनुरूप ही सुबल की अंग-कान्ति एवं स्वरूप है। इस अनुजा के समीप कोई पहिचान न सके कि दोनों में कन्या कौन-सी तो आश्चर्य क्या। यह सादृश्य तो इन दोनों का शाश्वत है। मुझे तो स्मरण ही नहीं रहा, मेरे सदा सावधान सारथि अरुण को भी स्मरण नहीं रहा कि मेरा नित्य-गतिशील रथ शिथिल हो गया है। यह जो धरित्री के अंक में वृहत्सानुपुर है- वहाँ का और देवी कीर्तिदा के पितृ-गृह का यह महा-महोत्सव! गगन में सुरों का यह सोत्साह स्तवन-अब इसमें मैं या अरुण ही आत्म-विस्मृत हो गये तो क्या आश्चर्य। मैं आज औरों के समान आशीर्वाद दे पाता-उपहार दे पाता; किंतु आशीर्वाद तो मेरा रोम-रोम दे रहा है, भले मेरी वाणी स्नेहाधिक्य से शिथिल हो चुकी है। वृषभानु-नन्दिनी-भानु-नन्दिनी जो आज धरा पर अवतीर्ण हुई। |
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