नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
72. कामदेव-रास का प्रारम्भ
एक साथ अपार आनन्द पारावार उमड़ पड़े- कोई कल्पना सम्भव नहीं, जैसे सब कुमारियों के मुख कमल खिले। सहस्र-सहस्र ज्योत्स्ना का आलोक आया। सबने घेर लिये मयूर मुकुटी को। सब जैसे लिपट पड़ेंगी- एक साथ प्रेम, उल्लास, मान, मिलन- सब में हर्ष, उत्साह आया। मैं अब भूल चुका था कि मेरा स्वरूप विकारी है। मैं मन्मथ हूँ और मनोमन्थन कर सकता हूँ। मैं तो केवल इन कृपामय पूर्ण प्रमाब्धि के पदों में अवनत हो रहा था। विनोद, विलास, हास-परिहास प्रारम्भ हो गया था, परन्तु मैं स्पष्ट स्तब्ध था। मेरी विकृति अर्थहीन थी। मेरी छाया भी स्पर्श नहीं कर सकती थी। ये पुरुषोत्तम दिव्य क्रीड़ा करने लगे थे। किसी को गुदगुदा देते थे तो कहीं चुटकी भी भर लेते थे। किसी को ठेल देते थे तो किसी को आलिंगन दान भी कर रहे थे। इस परम निर्विकार पूर्ण-पुरुष ने किशोरियों की प्रीति को सत्कृत-सम्मानित करना प्रारम्भ किया था। 'श्यामसुन्दर! मेरी वेणी गूँथ दोगे?' किशोरियों में अब मान आने लगा। उन्होंने कटाक्षपूर्वक सेवा सूचित करनी प्रारम्भ की। किसी की वेणी गूँथी इन्होंने और किसी की अलकों में पुष्प सज्जित किये। किसी की कञ्चुकी कसी और किसी की कपोलपल्ली पर चित्रांकन पूर्ण किया। किसी के अधर रञ्जित कर दिये तो किसी के पदों के अलक्तक का भी परिष्कार किया। 'पहिले मेरे लिए माल्य ग्रन्थन करो!' किशोरियों में परस्पर ईर्षा आयी। 'तुम पहिले मेरी वेणी में सुमन सजाओ, अन्यथा मैं नहीं बोलूँगी तुमसे।' स्पर्धा ने मान का रूप लिया। ये हँसते, मुस्कराते सबका सम्मान करने में व्यस्त हैं। सब अपने को सर्वाधिक प्रेयसी मानकर अपना स्वत्व प्रदर्शन करने लगी हैं। ये कब तक ऐसे विवश रहेंगे? अपराधी मैं हूँ। मैंने आशंका की और ये पूर्ण पुरुष अन्तर्धान हो गये। आर्त क्रन्दन गूँज उठा कुमारियों का। यह असह्य है मुझे, और कोई अपराध बन जाय, इसलिए मैं व्रजधरा को प्रणाम करके भाग आया। |
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