नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
71. श्रीकृष्ण-श्रीराधा-विवाह
'यह स्वत्व आज मेरा है।' वे परम गम्भीर हिरण्यगर्भ भी हँस उठे- 'मैंने बहुत बड़ा अपराध किया आपके सखाओं तथा बछड़ों का अपहरण करके। अब आज आपकी इन अभिन्न सहचरी का इनकी कृपा से पितृत्व पा जाऊँगा तो अन्तर में जो परिपात-पश्चाताप तब से जला रहा है, स्वतः शान्त हो जायगा।' मैं समझ गया कि वेदगर्भ इस बहाने हम दोनों के पाद-पूजन का अवसर चाहते हैं। इन्होंने स्पष्ट कर दिया- 'आप नित्य दम्पति का विवाह विडम्बना ही है; किंतु इस अपने आश्रित पर अनुग्रह करके इसे स्वीकार कर लें।' कन्या का पिता शास्त्रज्ञ हो तो कन्यादान का स्वयं आचार्यत्व कर सकता है इसमें कोई विप्रतिपत्ति थी ही नहीं। सामग्री स्वयं सृष्टिकर्त्ता के संकल्प ने उपस्थिति कर दी और स्मरण करते ही अग्निदेव प्रकट हो गये। ब्रह्माजी ने विधि-पूर्वक कन्यादान किया। सप्तपदी हुई और अपने-अपने भाग का मन्त्रोच्चारण हम दोनों ने स्वयं किया। मैंने श्रीराधा का काँपता कमलकर अपने करों में लिया तो हम दोनों के हाथ स्वेद-स्नात थे। सिन्दूर-दान के लिये मुझे अपने को बहुत सम्हालना पड़ा, इतना कम्प था शरीर में। विवाह के अनन्तर ब्रह्माजी ने हाथ जोड़कर कहा- 'मैं कितना कंगाल हूँ। आप दोनों जानते हैं। आप दोनों को बेटी-जमाता बनाकर भी कुछ देने में असमर्थ मैं इस विवाह का आश्चर्य होने के कारण वरदान ही माँगता हूँ- आप दोनों के श्रीचरणों में मेरी अविचल प्रीति बनी रहे।' मैंने ही दोनों की ओर से 'तथास्तु' कहा; क्योंकि ये संकोचमयी तो नेत्र भी उठा नहीं पा रहीं थीं। इनका श्रीमुख इतना अधिक लज्जारुण.........। ब्रह्माजी विदा हुए। हमारा वह निभृत निकुञ्ज हमारा मधुयामिनी का विहार-स्थल बन गया और यह निकुञ्ज, यह मिलन तो नित्य है; किंतु इन अत्यन्त सौन्दर्य माधुर्य सुषमा श्रीमूर्ति का यह लज्जारुण श्रीमुख- मैं इनका नित्य दर्शन पिपासु। इस सौकुमार्य सीमा के स्पर्श करने का सहसा तो नहीं किया जा सकता। |
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