नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
66. देवराज इन्द्र-गोविन्दाभिषेक
मैं अमरावती के द्वार-देश पर ही ऐरावत पर बैठा चिन्तामग्न था। सहसा चौंक गया घण्टे की ध्वनि से आते प्रणव का सुमधुर स्वर सुनकर। दृष्टि उठाकर देखता हूँ कि शत-सहस्र ज्योत्स्ना-धवल प्रकाश-राशि के मध्य कोई उज्ज्वल गो की आकृति उतर रही है। भय के कारण मेरा रोम-रोम काँपने लगा। मुझे लगा कि भगवान भूतनाथ का महावृषभ है और उसी के कण्ठ में बँधे घण्टे का यह स्वर है। वे वृषभध्वज प्रलयंकर शूलपाणि त्रिलोचन अब मेरा वध करने आ रहे हैं। ऐरावत से कूदकर भागने ही वाला था। जानता हूँ, कहीं भागकर परित्राण नहीं पुरारि के कर से प्रक्षिप्त त्रिशूल से; किंतु प्राण-भय से भागने के अतिरिक्त उपाय? पाहि! पुकारकर परित्राण तो पाने से रहा। पुरुषोत्तम-द्वेषी को आशुतोष भी क्षमा नहीं करेंगे। 'शक्र! स्थित रह वत्स!' हाय, मेरे सहस्र नेत्र कहीं श्रवण होते! मैं एक साथ इस अकल्पनीय सुधास्त्रावी स्वर का आस्वादन कर पाता! मैंने आश्वासन पाया, प्राण पाया, अभय पाया- क्या नहीं पाया इस एक ही स्वर में। देखता हूँ कि देवदेवेश्वरी महासुरभि स्वयं गोलोक से उतरती समीप आ गयी हैं। मैं जब से श्रीकृष्णचन्द्र के विपरीत हुआ, सहस्र नेत्र रखकर भी अन्धा हो गया हूँ। मैंने कृपा की इन साकार देवी को महाकाल का महावृषभ मान लिया था। वहीं ऐरावत से अम्बर में ही कूदकर मैंने साष्टांग प्रणिपात किया। मेरा अंग-अंग काँप रहा था। अपने अपराध की ग्लानि से रुद्धकण्ठ मैं बोलने में असमर्थ था। 'मेरे साथ चल!' उन भगवती ने स्नेहपूर्वक जैसे शिशु को कहती हों, आदेश दिया- 'सृष्टिकर्त्ता ने अभी तेरे लिए एक संदेश दिया है कि मेरे साथ वृन्दावन पहुँचकर हमारे गोपाल का गायों के इन्द्र पद पर अभिषेक कर आ। इन्द्र पद पर अभिषेक इन्द्र के करों से ही उत्तम होता है।' मैं केवल कम्पित-मात्र देखता रहा। मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। सच बात यह कि समझने की शक्ति मुझमें-से बहुत पहिले समाप्त हो गयी थी। 'मेरी सन्तान बहुत निरीह है। मैंने देखा कि तू उन वाणी-विहीन सर्वपालिका गायों के संहार पर ही उतर आया है तो तुझ पर अपनी रक्षा का दायित्व नहीं छोड़ा जा सकता।' सुरभि के स्वर में स्नेहपूर्ण उपालम्भ था- 'मैं अपने गोपाल के अतिरिक्त और किसी से क्या कहती। उसी से कुछ कहने गोलोक से चली थी। ब्रह्मलोक में ब्रह्मा ने मेरी पूजा की और प्रार्थना की कि तुझे साथ ले जाकर श्रीकृष्णचन्द्र का गोपों-गायों के इन्द्र पद पर अभिषेक करा दूँ। गायों का नित्य दायित्व केवल गोपाल पर रहे।' |
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