नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
7. चन्द्रदेव-बाबा-मैया का परिचय
यही भ्रम भगवान ब्रह्मा को है और गोकुलेश्वर तथा वृहत्सानुपुर के स्वामी- दोनों ही परिवारों के सम्बन्ध में है। बहुत सीधी-सी बात है कि जब उन निखिल-लोक-महेश्वर को अवनि पर अवतीर्ण होना है, जब उनका नित्य धाम धरा पर व्रज बनकर आविर्भूत हुआ है तो उनके नित्य परिकर भी यथाक्रम आवेंगे ही। जगत में इन परिकरों के ही तो प्रतिविम्ब जन्म-जन्म से जीव बने भटक रहे हैं। अब जिनका पुण्यपरिपाक हो गया है, जो उन आनन्दघन का सान्निध्य पाने का अधिकार अर्जित कर चुके हैं, वे अब इस अवतार काल में अपने नित्य दिव्य चिद्घन स्वरूपों से एकत्व तो प्राप्त करेंगे ही। वसुश्रेष्ठ द्रोण ने अपनी पत्नी धरा के साथ गंधमादन पर्वत पर सुप्रभा के तट पर गौतमाश्रम में रहकर श्रीहरि के दर्शन के निमित्त घोर तप किया, क्योंकि सृष्टि के प्रारम्भ में तो स्त्रष्टा सबको ही सृजन करने का आदेश दे रहे थे। उन हंसवाहन चतुर्मुख ने धरा और द्रोण को भी यही आदेश दे दिया था। ये दम्पत्ति चाहते थे कि श्रीनारायण इनके पुत्र बनें। परम पवित्र कामना; किंतु श्रीहरि भी क्या करें। किसी भी जीव को-वह जिस नित्य धामस्थ का प्रतिविम्ब, ज्योति किरण है, उससे पृथक तो नहीं किया जा सकता। जीव में अविद्या का आवरण न हो, वह अपने स्वरूप को ही समझे तो जीव ही कैसे कहा जाय। वसुश्रेष्ठ द्रोण और देवी धरा को कहाँ पता था कि वे जो चाहते हैं, वह तो उनके अकल्पनीय प्राप्य का क्षुद्रांश भी नहीं है। शताब्दियाँ व्यतीत होती चली गयीं; कि श्रीहरि का दर्शन नहीं हुआ तो दम्पति ने अग्नि प्रवेश करके देह त्याग का निश्चय कर लिया। चिता प्रज्वलित की। सुप्रभा के पावन-प्रवाह में स्नान करके अग्नि की प्रदक्षिणा करने चले, तभी आकाशवाणी हुई- 'तुम यह प्रयास मत करो। गोकुल में प्रकट होने पर मुझे अवश्य पुत्र-रूप से प्राप्त कर लोगे।' अब दोनों लौटे ब्रह्मलोक। भगवान ब्रह्मा ने भी प्रसन्न होकर वरदान माँगने को कहा। दोनों ने माँगा- 'परमपुरुष पुरुषोत्तम पृथ्वी पर प्रकट हों तो उनमें हमारा वात्सल्य हो। वे हमारे पुत्र बनकर हमारे अंक में, आंगन में क्रीड़ा करें।' |
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