नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
62. शनैश्चर-ढुण्ढा की होली
'नरहरि नख लाल। प्रह्लाद प्रतिपाल।' श्रीव्रजेन्द्रनन्दन कितने उल्लसित होते हैं जब कहते हैं- 'प्रह्लाद, प्रह्लाद, प्रह्लाद!' दूसरी ओर इनके अग्रज की उत्कण्ठा है- 'नरहरि,नरहरि,नरहरि' की ध्वनि करने में और बालक तो अनेक बार 'नख लाल' के स्थान पर 'नन्दलाल' कहकर ताली बजाते हैं और अपने सखा का श्रीमुख देखते हैं। आज भी व्रजेश्वरी को बहुत प्रतीक्षा करनी पड़ी। मैं माता की व्यथा समझता हूँ- उनके सुकुमार लाल इतना बिलम्ब करके आते हैं; किंतु कोई उपाय नहीं। सखा सब साथ आते हैं और यहाँ भी गाते उछलते 'नरहरि नख लाल' का कोलाहल ही करते हैं। व्रजेश्वरी बालकों के भगवान एवं भागवत गुणगान में बाधा कैसे डालें। स्वयं हँसती हैं और माता रोहिणी के साथ स्वयं भी ताली बजाकर कीर्तन कर लेती हैं। इसके बिना बालकों को शान्त करके विदा भी तो नहीं किया जा सकता। देवर्षि ने तो केवल मुझे सौभाग्य दिया। व्रज में मेरी दृष्टि क्या करती? भगवती योगमाया जहाँ सतर्क रहती हैं सदा, वहाँ मैं सेवा कर सकता था? लेकिन मैं शूद्र-ग्रह हूँ। असुरों से मेरा स्नेह है। इसलिए दयामय देवर्षि ने मुझे शुद्ध होने का समय दिया। सेवा मैं कोई कहाँ कर सका। ढुण्ढा व्रज में आयी तो स्वयं इतनी सशंक भयभीत थी कि उसके भय ने ही उसे स्तब्ध कर दिया था। वह तो लुकती-छिपती अन्धकार होने के बहुत पीछे आयी। आकर भी उसे सूझ नहीं रहा था कि कहाँ जाय क्या करे। कंस ने उसे जो कुछ सुना दिया था, अपने अनुचरों की मृत्यु का जो वर्णन कर दिया था, वह ढुण्ढा के आतंक को बढ़ाने वाला ही सिद्ध हुआ था। भले कंस ने उसे सावधान करने को वह सब सुनाया था। वह तो मार्ग में खड़ी सोचने में ही भूल गयी कि वह कहाँ क्यों खड़ी है। होलिका-दहन होना है शान्ति के तृतीय प्रहर में भद्रा-पुच्छ में। गोपों ने अपने ढंग से इसके लिये सामग्री सजायी है। इस नवाग्न्येष्टि यज्ञ में मुन्यन्नों की आहुति कुम्भों से घृतधारा देते हुए और फिर होला[1] प्रस्तुत करके प्रसाद वितरण, इतना ही तो उन्हें करना है। महर्षि शाण्डिल्य विप्रों के साथ पूजन करा देंगे और दूर खड़े मन्त्र-पाठ करेंगे। इस काष्ठ-राशि में पूजन के पश्चात् अग्न्याधान तो बालकों को ही करना है। व्रजराजकुमार को ही अपने सखाओं के साथ चन्दन-दण्ड की प्रथमाहुति देनी है। श्रीव्रजेन्द्रनन्दन सखाओं के साथ आज इस काष्ठ-राशि में काष्ठार्पण करके कुछ शीघ्र लौट गये हैं। मैया की बात बालकों ने मान ली है कि शीघ्र ब्यालु करके सबको सो जाना चाहिये, जिससे होलिका-दहन के समय उठा जा सके। सबने दिन में ही अपने-अपने चन्दन-दण्ड सम्हालकर रख लिये हैं। अब तो मैया ने समझाकर बालकों को विदा कर दिया है। केवल राम-श्याम और भद्र रह गये हैं सदन में। सबने ब्यालू साथ कर ही लिया। सदा की भाँति नन्दग्राम के भी बालक सीमा तक बरसाने के सखाओं को छोड़कर ही लौटेंगे; किंतु आज यह ढुण्ढा मार्ग में खड़ी है। धीरे-धीरे बढ़ रही है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अग्नि में सेंकी गेहूँ यव की बालें।
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