नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
61. देवगुरु बृहस्पति-प्रलम्ब-परित्राण
'चल घोड़े चल!' उज्ज्वल को आनन्द आ रहा है विशाल की पीठ पर बैठकर। 'बस!' अब अपने भाण्डीर वट तक आ गये। 'दाऊ ने नवीन सखा से कहा। यह इतनी गति से आया है और इतना ऊँचा है कि रुके तब इसकी पीठ से उतरा जा सकता है; किंतु यह तो भागता ही जा रहा है। दाऊ समझते हैं कि यह अपना पौरुष-प्रदर्शन कर रहा है कि इतनी दूर आकर भी श्रान्त नहीं हुआ। दाऊ भले इसे क्रीड़ा मानें- इनकी ऐश्वर्य-शक्ति तो प्रमत्त नहीं होतीं इन अनन्त का भार सहसा बढ़ गया है। प्रलम्ब के भाल पर स्वेद आ गया। लगा कि कटि टूट जायगी। इस रूप में इनको ढोना सम्भव नहीं। सहसा दाऊ के दोनों पद पकड़कर तनिक उचका। पीठ पर से गर्दन पर लिया और उठ खड़ा हुआ। अब अपना असुर रूप प्रकट कर दिया उसने और पृथ्वी पर-से आकाश में उछल गया। 'सबुल! वह दादा को वट से आगे लिये जा रहा है।' वरूथप चौंका- 'वह तो जैसे दौड़ रहा है।' सबुल ने वरूथप को लुढ़का दिया पीठ से और उठ खड़ा हुआ। वरूथप भी खड़ा हो गया। 'भद्र! वह सखा नहीं, राक्षस है।' ऋषभ ने कहा- 'वह दादा को लेकर उड़ने लगा है।' 'क्या?' भद्र ने भी ऋषभ को पीठ से लुढ़काया और दौड़ते-दौड़ते पुकारा- 'कनूँ! वह राक्षस है।' 'राक्षस है!' श्रीदाम चौंका और इतने में कन्हाई उसे लुढ़काकर उठ खड़ा हुआ। सब दौड़ पड़े। कज्जल-कृष्ण, पर्वताकार प्रलम्ब अब अपने स्वरूप में प्रकट है। मस्तक पर स्वर्ण-मुकुट, भुजाओं में स्वर्णांगद, लाल-लाल केश, जलते अंगार जैसे नेत्र, कठोर भृकुटि, भयानक दाढ़ें- 'यह असुर कन्धे पर नीलाम्बर धारी तप्तकाञ्चन-गौर श्रीबलराम को बैठाये उड़ा जा रहा है। अपनी भुजाओं से संकर्षण के दोनों पद इसने वेष्टिक कर रखे हैं। यह तो वायुवेग से जाना जाता है, किंतु बढ़ नहीं पाता। बहुत भार है भगवान अनन्त का। गति शिथिल होती जा रही है। 'किसी प्रकार मथुरा तक पहुँच पाता.........!' असुर के शरीर से स्वेद छूटने लगा है। 'यह भयानक असुर कहाँ ले जा रहा है मुझे?' दाऊ ने देखा और तनिक भय का भाव मुख पर आया- 'श्याम ने इसे सखा स्वीकार कर लिया। मैं अब इसे मार भी तो नहीं सकता।' 'दादा! संकोच मत कर। मार दे इसे।' नीचे दौड़े आते श्यामसुन्दर ने तनिक दूर से ही ललकारा- 'तुझे स्मरण नहीं कि मैंने सखा बने व्योमासुर को मार दिया था!' इतनी ही पुकार की तो प्रतीक्षा थी। दाऊ ने अपने दाहिने हाथ का घूँसा उठाया और धर दिया प्रलम्ब के मस्तक पर पूरे वेग से। प्रलम्ब के मस्तक पर वज्र भी पड़ता तो इतना भयंकर शब्द नहीं होता। मस्तक की अस्थि ही चूर-चूर नहीं हुई, पूरा सिर धड़ के भीतर प्रविष्ट हो गया। प्रलम्ब की निष्प्राण प्रचण्ड काया पृथ्वी पर गिर पड़ी। प्रलम्ब का क्या होना था। श्रीकृष्ण ने उसे सखा स्वीकार कर लिया था। उसे तो चिन्यम गोपकुमार का दिव्यदेह मिल गया और वह गोलोक चला गया। अब वह न असुर रहा, न गन्धर्व। अपने आराध्य का नित्य सान्निध्य सुलभ हो गया उसे। गोपकुमारों ने दाऊ को घेर लिया। सब इनके दक्षिण कर को देख लेना चाहते हैं। सबको ही इन्हें अंकमाल देनी है। मेरा प्रयोजन पूरा हो गया। मैं अब अमरावती प्रस्थान कर सकता हूँ। |
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