नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. गरुड़-कलिय-दमन
पशुओं का क्रन्दन सुनकर गोप, गोपियाँ सब जाग गये। सब अत्यन्त भयातुर हो उठे। मैंने देखा-किसी को भी अपनी मृत्यु का भय नहीं था, परन्तु सब श्यामसुन्दर के लिये सचिन्त हो उठे थे। सबने पुकारना प्रारम्भ किया- 'राम! महाबाहु राम! श्रीकृष्ण! गोविन्द! यह अग्नि बढ़ा आ रहा है। यह हम सबको भस्म कर दे, इससे पहिले कोई उपाय करो! हम सब तुम्हारे हैं। हमें बचा लो श्यामसुन्दर!’ मैं मुख में भी जल लाकर डालता तो अग्नि शान्त हो जाता; किंतु बहुत कठिन है सेवाधर्म! स्वामी के समीप संकेत पाये बिना मैं कुछ भी कर नहीं सकता था। भगवान संकर्षण ने अनुज की ओर देखा। 'सब लोग अपने नेत्र बन्द कर लो!' श्यामसुन्दर ने उच्चस्वर से कहा। सबने नेत्र बन्द कर लिये। मैंने देखा कि दक्षिण कर का संकेत हुआ तनिक आगे आकर और मुख खोल लिया इन यज्ञपुरुष ने। अग्निदेव की लपटें उस मुख में समाती चली गयीं। पलभर में तो सम्पूर्ण अग्नि अपने उस आदि उद्गम-स्थान में लीन हो चुका था। 'मैया!' लौटकर श्रीकृष्णचन्द्र ने मैया का कर-स्पर्श किया। 'अग्नि का क्या हुआ?' व्रजेश्वरी ने नेत्र खोला और चकित इधर-उधर देखने लग गयीं। 'वह तो भाग गया!' प्राची क्षितिज में अरुणोदय होने लगा था। आपने बहुत भोलेपन से उधर अंगुलि-संकेत किया- 'वह भागा जा रहा है।' सबने नेत्र खोल लिये। अब तो गौओं को आगे करके, अधरों पर वंशी धरे, सखाओं के साथ आज व्रज की ओर चल पड़े हैं। गोप, गोपियाँ, बालिकायें बहुत प्रसन्न हैं कि उनके ये गोपाल आज दिनभर उनके मध्य ही रहेंगे। मैं शुक बना भी साथ चल सकता हूँ; किंतु गौरैया बनने में अधिक सुविधा है। मैं तब स्वामी के अधिक सन्निकट रह सकता हूँ। |
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