नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
59. गरुड़-कलिय-दमन
यह ऐसे हुआ- समुद्र का रमणक द्वीप नागालय है। मेरी माता को नागमाता कद्रू ने और नागों ने छल करके सेविका बनाकर बहुत सताया था। मुझे भी बचपन में नागों ने अपना वाहन बना रखा था। अतः उनसे मेरी जन्मजात शत्रुता है। उनके कहने पर अमरावती से अमृत लाकर माता के साथ मैं उनके दासत्त्व से मुक्त हो गया। तब से नाग मेरे प्रिय आहार हैं। मैं चाहे जब उनके आवास रमणक में पहुँच जाता था और फिर शत्रुओं का सम्हालकर तो आखेट कोई करता नहीं। जो भी मिल जाता, मैं उन्हें मारने ही जाता था। भगवान शेष सम्मान्य हैं मेरे। मैं अपने स्वामी के अनन्तर उन्हीं का आदर करता हूँ। वे नागों की आर्तावस्था के कारण आतुर हुए। उन्होंने मध्यस्थ होकर मेरी सन्धि करा दी नागों के साथ। यह निश्चित हुआ कि मैं रमणक द्वीप में केवल पूर्णिमा को आऊँ और द्वीप में जो महावट है, उसके नीचे अपने लिये समर्पित बलि को लेकर सन्तुष्ट रहूँ। नाग भी प्रत्येक पूर्णिमा को उस वृक्ष के नीचे मेरे लिये पर्याप्त आहार तथा अपने में-से एक महानाग को वहाँ प्रस्तुत रखा करें। भगवान अनन्त का आदेश मैंने मान लिया। बहुत समय तक यह क्रम चलता रहा; किंतु अपने शतैकशीर्षा होने के अभिमान में कालिय ने इस सन्धि को भंग किया। बहुत अहंकार था उसे अपने विष का। उसने एक पूर्णिमा को वृक्ष के नीचे मेरे लिये प्रस्तुत आहार नागों के रोकने पर भी स्वयं खा लिया। मैं उस समय वहाँ उतरने ही वाला था। मैंने कालिय की दुष्टता देख ली थी। दूसरे सब नाग मुझे गगन से उतरते देखकर अपने बिलों में भागकर जा छिपे; किंतु कालिए अपने फणों को फैलाकर खड़ा हो गया था फूत्कार करता हुआ। मैंने पृथ्वी पर उतरने से पहिले ही अपने वाम पक्ष का एक साधारण-सा आघात कालिय पर किया। इस आघात से ही वह जाकर समुद्र में गिरा रमणक द्वीप से दूर। जल में डुबकी लगाकर भागा। उस कायर के कारण उस दिन उसकी जाति का कितना विनाश हुआ, यह भी उसने नहीं देखा। कालिय समुद्र से सुरसरि में और उनसे कालिन्दी में होता वृन्दावन पहुँचा। उसे सौभरि के शाप का किसी के द्वारा पता होगा। बहुत दिनों तक उसे मेरे स्वर्ण के समान पक्ष के प्रहार का स्वप्न आया होगा। अपना पूरा परिवार उसने बुला लिया। कालिन्दी का सौभरि हृद इस प्रकार मेरे स्वामी ने कालिय-हृद बना दिया। |
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