नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. यमराज-अघोद्धार
निकले श्रीव्रजराजकुमार। मन्द पदों से चलते मृत अघासुर के मुख से ही निकले। त्वरित गति से गये थे सखाओं को बचाने; किंतु अब कोई शीघ्रता नहीं। मन्दगयन्द-गति से झूमते निकले। अघासुर की अन्तरिक्ष में स्थित जीव-ज्योति ने परिक्रमा की और पादारविन्द में प्रविष्ट हो गयी। इन्हें तो अपने सखाओं को, बछड़ों को केवल देख लेना है। जिनकी दृष्टि पाकर जड़ प्रकृति कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों का सृजन करने में समर्थ हो जाती है, उनकी अमृत दृष्टि- सुधा-स्त्राविनी दृष्टि पड़ी और बालक उठ खड़े हुए। बछडे़ उछलकर कूदने लगे। गोप-कुमारों ने दौड़कर आलिंगन किया और भुजाएँ फैलाये एक-एक से नन्दनन्दन मिले। मानो युगों के पश्चात् सखा से मिले और उसे अंकमाल दे रहे हैं। अघासुर का शरीर- अब तो परम पावन हो गया यह शरीर। श्रीकृष्ण के सखाओं ने इसे अपना क्रीड़ा-गह्वर बनाना चाहा था, अत: अब तो यह प्रकृति का दायित्व बन गया कि इसे शीघ्र शुष्क कर दे। गोप-बालकों को इसे छिपने की गुफा तो बनना ही पड़ेगा। बहुत दिनों तक पड़ा रहेगा यह गुफा बना। सुरों का जयनाद, उनकी सुमन-वर्षा और स्तवन- यह मेरे लिए भी सुअवसर है उनके साथ सम्मिलित होकर स्तुति करने और इन आराध्य पदों पर पुष्पाञ्जलि करने का। |
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