नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
53. यमराज-अघोद्धार
कभी व्रज में यह घटना घट गयी, सो नहीं। मैं कर्म-नियन्ता जानता हूँ कि यह श्रीकृष्ण स्वाश्रितों के लिए सदा यही करते रहते हैं; किंतु व्रज में कुछ व्यापक रूप में घट गयी उस दिन और अपनी अनुजा की अनुकम्पा से मैं भी उसकी झाँकी पा गया। मेरी अनुजा कालिन्दी कब से कठिन तप करती इन्द्रप्रस्थ में यमुना जल में स्थित है।[1] व्रज में अपनी अधीश्वरी श्रीवृषभानुकुमारी की सेवा में संलग्न रहना उसका सौभाग्य और यह मेरा सौभाग्य भी बन गया, अन्यथा यम की काली छाया व्रजमण्डल के गगन को भी नहीं छू सकती। सुर विमानों पर बैठे प्राय: श्यामसुन्दर की क्रीड़ा देखने यहाँ नभ में बने ही रहते हैं, लेकिन मैं महिष-वाहन बनकर तो यहाँ प्रवेश ही नहीं पा सकता। भगवती योगमाया यमुना का अग्रज होने के कारण मुझे आ जाने देती हैं और सुरों के समान गगन से नहीं, अदृश्य रहकर समीप से भी साक्षात्कार का सुअवसर मुझे सुलभ हो गया है। अपनी अनुजा के इन सौभाग्य सर्वस्व की मंगल-क्रीड़ा किसे आकर्षित नहीं करती। मेरे तो ये सदा के आराध्य हैं; किंतु आजकल इन्हें मैया को खिझा देना अच्छा लगता है। ये लीलामय- मैया नहीं चाहतीं कि ये वन में वत्स-चारण के लिये जावें और इन्हें धुन चढ़ी है कि मध्याह्न में भी नहीं लौटेंगे। अब जननी खीझती हैं, चिन्तित होती हैं, पर करें क्या, उनके ये लाड़िले मानते कहाँ हैं। कई दिनों से चल रही है माता-पुत्र की यह प्रेम-कलह। मैया चाहती है कि वे वन में जाते ही हैं तो प्रथम-प्रहर व्यतीत होते ही लौट आवें और ये हैं कि मध्याह्न में भी नहीं लौटते। बार-बार सेवक जाते हैं। व्रजेश्वरी दोनों देवरों को भी भेजकर देख चुकीं; किंतु कृष्णचन्द्र किसी की नहीं सुनते। वन में सखाओं के साथ स्वछन्द विचरण को छोड़कर क्यों गृह लौट आवें। अब वन में ही छाक तो भेजनी ही पड़ती है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ यह पूरी कथा 'श्री द्वारिकाधीश' में कही गयी है।
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