नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
6. माता रोहिणी-दाऊ का जन्म
मैं अन्तर्वत्नी हो गयी। देवकी का वह अत्यन्त कातर अनुरोध- 'स्वामी का वंश ही नष्ट हुआ जा रहा है!' सचमुच मेरी किसी भी सपत्नी को अब तक सन्तान नहीं थी और अब तो वे बेचारियाँ मथुरा से ही दूर चली गयी थीं। देवकी की सन्तानें कंस के कोप की आहुति बनती जा रही थीं। मैं अन्तर्वत्नी हुई और समय समीप आने लगा तो देवकी ने और स्वामी ने भी अपनी शपथ देकर मुझे विवश कर दिया मथुरा-त्याग के लिए। गोकुल समीप था। यहाँ कम-से-कम स्वामी का समाचार तो मैं पा सकती थी। विपत्ति व्यक्ति से सब कुछ करा लेती है। मैंने पुरुष-वेश धारण किया और अश्वारोही बनकर प्रात:काल ही मथुरा से निकली थी। यही अवसर था, जब कंस के असुर-पुर रक्षक असावधान रहते थे। वे उनींदे होते थे, अत: किसी-की ओर भी अधिक ध्यान नहीं दे सकते थे। मुझे कोई बाधा नहीं हुई। किसी ने रोका नहीं। कुछ पूछा भी नहीं; क्योंकि मेरे पास कुछ सामग्री नहीं थी। मुझे तो प्रात: पर्यटन का कोई व्यसनी माना गया होगा। मथुरा के नगर-द्वार से निकलकर मैंने अश्व को दौड़ा दिया था। स्वामी का यह श्वेत अश्व अब भी यहाँ है और सभी उसकी बड़ी श्रद्धा से सेवा करते हैं। बड़े-बूढ़े गोप तक उसे सादर सिर झुकाते हैं। सब कहते हैं- 'ये अश्वराज शुभ-वाहक बनकर गोकुल में आये। इनके चरण आये तो यहाँ घरों में शिशुओं की किलकारियाँ गूँजने लगीं।' बहुत सीधा, बहुत स्वामिभक्त है यह पशु। मुझे देखते ही ऐसा प्रसन्न होता है, जैसे उसमें नवीन प्राण आ गया हो। अब तो मैंने उसे व्रजपति को दे दिया है; किंतु उसकी तो वे पूजा करते हैं। कोई उस पर आरोहण की चर्चा भी नहीं सुनना चाहता। उस दिन इस अश्व को सम्भवत: मेरी कठिनाई समझ में आ गई थी। वह द्रुतगति से चलता हुआ भी सावधान था कि मुझे झटके न लगें। मैं उसे सीधे व्रजपति के द्वार पर ले आई और उतरकर अन्त:पुर में चली आई। उस वेश में किसी भी पुरुष के सम्मुख पड़ने में मुझे अत्यन्त लज्जा का अनुभव हो रहा था। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज