नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. भगवती पूर्णमासी-मधुमंगल
महर्षि शाण्डिल्य तक सुप्रसन्न थे। उनके मुख्य यजमान नन्दराय के पिता श्रीपर्जन्य का लुप्त होता वंश बच गया था। उनके चार पुत्रों के गृहों में सन्तानों के आगमन की सम्भावना हो गयी थी। अब पाँचवें के सम्बन्ध में उनको अधिक चिन्ता क्यों हो? व्रजराज नन्द और व्रजेश्वरी यशोदा के हर्ष और उत्साह का तो पूछना ही क्या। उनके अपने पुत्र के आगमन का भी इतना आनन्द उन्हें नहीं होना था। यह तो मैं थी कि मेरा अन्तर आश्वासन नहीं पाता था। मैंने तो पाँचों को आशीर्वाद दिया था, एक ही आशीर्वाद, एक ही शब्दावली और सबसे पहिले यशोदा को दिया था: किंतु वही वञ्चिता क्यों? उसी के सम्बन्ध में मिथ्याभाषिणी क्यों बन रही हूँ? मुझे स्मरण आया कि मधुमंगल ने चार को ही मेरे आशीर्वाद का समर्थन देकर अपना आशीर्वाद दिया था। मैंने अपने इस अवधूत से अनुरोध किया तो यह हँसकर बोला- 'मैया की गोद में तो मेरा सखा आवेगा। वह अपनी मौज से आवे तो हानि क्या? एक बहिन भी तो चाहिए। वह बहिन ले आवे अपने साथ तो अच्छा। नहीं तो बहिन एक अतुला माँ के अंक में और आ जायगी।' मैं कुछ पूरा नहीं समझ सकी; किंतु आश्वस्त हो गयी कि व्रजरानी की गोद भी भरेगी-भले कुछ देर से भरे। अतुला को दो पुत्र तो होंगे ही, एक कन्या भी होगी। यह सब हुआ, यह तो सबके सम्मुख है। 'दादा आवेगा! सबसे पहिले दादा आवेगा।' एक दिन यह मेरा अवधूत गोकुल के घर-घर में सुनाता कूदने लगा। मेरी भी समझ में कुछ नहीं आया। मैंने महर्षि शाण्डिल्य से पूछा तो बोले- 'यहाँ जो भी आने वाले हैं- वे हम महर्षियों-मुनियों के ध्यान में भी नहीं आते। अत: हम केवल प्रतीक्षा कर सकते हैं। मधुमंगल उनके अपने हैं। वे जो कहते हैं, ठीक ही कहते हैं। लगता है कि भगवान संकर्षण आने वाले हैं; किंतु वे कैसे पधारेंगे, कौन कह सकता है।' |
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