नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
47. तुम्बरू-वेणु-वादन
सब शिशु हैं। कोई सावधानी, तन्मयता कहाँ सीखी है इन्होंने। हँसते, बोलते, एक दूसरे की कृति को देखते अपनी सज्जा अथवा चित्र-निर्माण में लगे रहते हैं और जो कर देते हैं, करते जाते हैं, कला की अधिष्ठात्री उसमें कृतार्थ होती हैं। इनको कहाँ अपनी कला को नित्य रखने अथवा उससे अपना नाम अमर करने की इच्छा है। ये तो श्रृंगार करके खेलने में लग जाते हैं और शिशुओं के श्रृंगार क्या क्रीड़ा में बने रहेंगे? अद्भुत बात है- श्रृंगार में-से जो चित्रांश मिट जाता है क्रीड़ा में लगने पर, जो पिच्छ, पुष्प-गुच्छ, गुंजामाला टूट गिरती है, वह अधिक शोभा बढ़ाती है। लगता है कि वह अंश मिटकर, वह किसलय या गुच्छ गिरकर कला को अधिक भव्य कर गया और यह क्रम चलता रहता है। इन बालकों की क्रीड़ा का कोई क्रम सम्भव है? कोई उड़ते पक्षियों की छाया पर पद रखते दौड़ रहा है, कोई मयूर के साथ नृत्य करता उसे चिढ़ा रहा है, कोई मण्डूक के समान बैठा मण्डूक के साथ कूद रहा है, कोई बक के समीप उसी प्रकार बैठा है। कोई शशक को दौड़ा रहा है, कोई कपियों के साथ छोटे वृक्ष की शाखा पर चढ़ा जा रहा है। किसी ने कपि के बच्चे को पकड़ लिया है। कोई काले कपि की लांगूल पकड़कर लटक गया है। कोई कपि को चिढ़ा रहा है, 'खी-खी' करके, दाँत दिखाकर। मृग, केशरी, बछड़े अथवा किसी पक्षी की बोली का अनुकरण कर रहे हैं अनेक और कई प्रतिध्वनि के साथ ही उलझे हैं। कठोर शब्द बोलते हैं और प्रतिध्वनि आती है तो हँसते हैं, अधिक उच्च स्वर से बोलते हैं। एक दूसरे शृंग, वेत्र फेंक देते हैं अथवा लेकर भागते हैं। वह दौड़ता है तो दूसरे को फेंककर दे देते हैं। एक दूसरे के पीछे स्पर्श करने दौड़ते हैं। मल्ल-युद्ध करते हैं। |
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