नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
45. लक्ष्मी-गोदोहन
'यह मुझसे छोटा है। तू मापकर बता दे।' भद्र को भी यह झगड़ा मिटाना है। 'तुम दोनों बड़े हो।' मैया हँसती नहीं- 'मैं छोटी हूँ। अब मुख धलवाओ।' 'नहीं, भद्र छोटा है।' श्याम ऐसे कैसे मान ले। 'भद्र बाबा का है न?' मैया को सदा कोई-न-कोई युक्ति सूझ जाती है। 'बाबा का है तो क्या हुआ?' कन्हाई का स्वर शिथिल पड़ गया है। भद्र बाबा का है, बाबा के पास सोता है। श्याम मैया का है। 'बाबा बड़े हैं, मैं भी बड़ा हूँ।' भद्र अपनी विजय मनाने लगा है ताली बजाकर। 'मैं गाय दुहूँगा।' कृष्णचन्द्र को अब इस विवाद में विजय नहीं मिलती दीखती तो अपना आग्रह क्यों छोड़ दें। 'जा दुह ले!' भद्र नटखट है। हँसता है- 'सब गायें दुही जा चुकीं। तू किसे दुहेगा?' 'हेमा को दुहूँगा!' कन्हाई को कहाँ पता है कि वर्ष भर की बछड़ी हेमा अभी दूध नहीं देती। 'हेमा चरने चली गयी।' भद्र हँसता है। मैं गोष्ठ में गोमय में तादात्म्य करके, गृह में सेविका बनकर, वन में शोभा बनकर अपने आराध्य का सान्निध्य प्राप्त करने ही तो यहाँ व्रज में आयी हूँ। गोमाता ने मेरा यहाँ प्रवेश सुलभ किया है तो मैं उनकी पदधूलि के माध्यम से सर्वत्र पहुँचकर सेवा का सौभाग्य क्यों छोड़ दूँ। आज फिर सबेरे उठ गये मेरे स्वामी। गृह में-से एक नन्हीं स्वर्ण की छोटी कलशी[1] उठा लाये हैं। मैया की दृष्टि बचाकर ही आये होंगे। आज आलस्य नहीं है। सावधान हैं कि बाबा के समीप जायेंगे तो फिर वे अंक में उठा लेंगे। सीधे इधर-उधर और पीली बछड़ी हेमा के समीप पहुँच गये। व्रजराज ने अपने लाल को देख लिया है- 'यहाँ आ जाओ!' 'मैं इसे दुहूँगा!' बाबा के समीप कहाँ जाना है अभी। अभी तो इस हेमा को दुहना है। हेमा इन्हें सूँघने लगी है। 'इसे कैसे दुहेगा?' भद्र उठकर खड़ा हो गया है अपनी दोहनी लिये- 'इसका बछड़ा कहाँ है? तू बछड़ा बनेगा इसका?' |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ लुटिया
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