नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
45. लक्ष्मी-गोदोहन
'मैं गाय दुहूँगा!' श्यामसुन्दर सबेरे चुपके उठकर गोष्ठ में आ गये। बिखरी अलकें, कपोलों पर फेला कज्जल, कछनी का कहीं पता नहीं। डगडग पदों चलते, जम्हाई लेते बाबा की दक्षिण भुजा पकड़कर खड़े हो गये हैं। पिता के कन्धे पर सिर रखकर अभी नेत्र बन्द कर लिये हैं। 'गाय तो बड़े गोप दुहते हैं।' व्रजपति ने दोहनी रख दी। वे गोदोहन समाप्त कर चुके हैं। अब अपने इन नीलसुन्दर को भुजा के भीतर अंक में स्नेह-पूर्वक लिया उन्होंने- 'तुम बड़े हो जाओ तो गोदोहन करना।' 'भद्र तो तुझसे छोटा है। यह तो गाय दुहता है!' अब नेत्र खोलकर सावधान हो गये श्यामसुन्दर। 'तू छोटा है मुझसे!' भद्र क्यों अपने को छोटा मान ले। भद्र से भले नौ महीने छोटे हों, ये कहाँ मानते हैं कि भद्र इनसे बड़ा है। भद्र ने चुनौती दे दी- 'आ! माप करके देख ले!' अब यह चुनौती तो सहन करने योग्य नहीं है। ये उतरे बाबा के अंक से। ये दिगम्बर और कछनी बाँधे भद्र, दोनों कन्धों पर भुजाएँ रखकर, सटकर, सिर से सिर सटाकर खड़े हैं। दोनों नीचे देखते हैं कि कोई ऊँचाई पर तो नहीं खड़ा है। 'बाबा! मैं बड़ा हूँ?' दोनों पूछते हैं। दोनों पञ्जे उठाकर उचकते हैं। इसमें बाबा कैसे देख सकते हैं कि भद्र एक अंगुल बड़ा है। 'तुम अपनी मैया से पूछो।' बाबा मुस्कराते हैं। उन्हें भी दूध लेकर भवन में जाना है। इस कन्हाई के लिए पद्मगन्धा कामदा का दूध तो वे स्वयं दुहते हैं। 'अरे, कहाँ चला गया तू!' मैया लग गयी थी उठते ही दूध, दधि-मन्थन सम्हालने तथा अपने नीलमणि के लिए नवनीत प्रस्तुत करने में और ये चुपचाप गोष्ठ में पहुँच गये थे। मैया ढ़ूँढ़ने ही निकलने वाली थी। भद्र और श्याम दोनों दौड़ते आये और उसके पैरों को भुजाओं में भरकर खड़े हो गये। मैया को इन्हें कलेऊ कराना है। वह चाहती है, झटपट इनका मुख धुला दे। |
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