नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
44. माधुरी दासी-पनघट
बालकों ने कठिनाई से कलेऊ किया और यह तो आ धमकी। अब? लेकिन भद्र बोल उठा- 'मैया इस गोपी का घड़ा .....।' 'मैंने इसका एक घड़ा फोड़ दिया!' नीलमणि बीच में न बोलता तो उत्तम होता। भद्र भी रुष्ट होकर इसे देखने लगा है; किंतु मेरा लाल सखा को असत्य क्यों कहने दे। यह तो सदा सखाओं के अपराध भी अपने मानता आया है। 'तूने घड़ा फोड़ा!' व्रजेश्वरी का स्वर सुनकर मैं धक से रह गयी। 'इसके सिर पर दो घड़े थे मैया! इतने बड़े-बड़े़!' नीलसुन्दर दोनों हाथ फैलाकर बतलाता है- 'एक इसने कक्ष में ले रखा था। कितनी तो यह दुबली है। लगता था कटि पर से टूट जायगी। ऐसे तो यह चलती थी।' अब मटककर चलकर यह नटखट दिखाने लगा तो किसी की हँसी रुक सकती है। कहता है- 'मैंने तो इसके एक घड़े में छोटा-सा छिद्र किया था। सब घड़े इसने स्वयं पटक-कर फोड़ दिये। तू इसे मार लगा।' 'क्यों री! तू घड़े फोड़ा करती है?' हमारी स्वामिनी हँस रही हैं। वह स्वयं हँस रही है। मेरा लाल तो तुझे टूटने से बचाने लगा था और तूने धडे़ फोड़ डाले?' लेकिन ये सब चपल भागकर फिर उछलते-कूदते पुलिन पर पहुँच गये हैं, अत: मुझे भी जल भरने की सेवा करनी है। घट लेकर मुझे भी वहीं कालिन्दी-कूल जाना है। बालक तो चपलता करेंगे ही। इन गोपियों को कौन कहे कि तुम अपने घट अन्यत्र भर लिया करो। इनको तो घट फुड़वाने हैं। अब तो और भी आने लगी हैं। दिन में कई-कई बार आती हैं। बालकों को तो एक क्रीड़ा चाहिये। ये जितनी खीजती हैं, आँखें दिखाती हैं, उतना ही नीलसुन्दर हँसता है, कूदता है और इनको चिढ़ाता है। |
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