नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
43. कीर्त्ति मैया-प्रथम परिचय
मैंने समाचार पाया तो अपना पूरा भवन सजाने में लग गयी थी। मैं तो समझती थी कि वे यहाँ आ जायेंगे। हम यह भवन भेंट कर देंगे उन्हें। वृहत्सानुपुर में उनके सब गोपों के आवास की उत्तम व्यवस्था हो जायगी। आवश्यकता हुई तो यह पुर पूरा उनको अर्पित करके हम पास में और नगर अपने लिए बसा लेंगे। अन्तत: अपनी पुत्री को ही तो यह सब देना है मुझे-मेरे पुत्र समर्थ होंगे तो स्वयं अपने पुर बसावेंगे। मेरे स्वामी बहुत संकोची हैं और मैं कैसे वहाँ जा सकती थी। ये प्रार्थना भी पूरे बल से नहीं कर सके। कहते हैं- 'व्रजराज का पूरा व्रज अपने नगर में मिल जाय, यह प्रार्थना धृष्टता होती।' इसमें क्या धृष्टता थी? इनके पिता ने व्रजराज की पगड़ी को जिस दिन प्रथमोपहार अर्पित करके इनको पार्श्व-रक्षक बनाया- उसी दिन वे बड़े हो गये। अपने बड़ों ने अपना बड़प्पन उन्हें अर्पित कर दिया तो हम अपना नगर अर्पित कर देते- अधीश्वर तो उन्हीं को रहना था। अब तो वे सब प्रकार बड़े हैं। अन्तत: हमने अपनी सुता की सगाई कर दी है उनके लाल से; किंतु कभी मिल सकी तो यशोदा को उलाहना अवश्य दूंगी कि हमको एक दिन के सत्कार के योग्य भी उनके स्वामी ने नहीं माना। आते ही आवास की व्यवस्था पृथक कर ली। यह व्यवस्था वहीं- जहाँ स्थान उन्होंने स्वीकार किया था, वृहत्सानुपुरपति कर देते- शीध्र कर देते। हम इसे पहिले कर देते यदि हमें तनिक भी पता होता कि व्रजराज गोकुल को लेकर यहाँ बसना स्वीकार करेंगे। अकस्मात आगमन हुआ और हमें एक रात्रि के आतिथ्य का अवसर भी नहीं मिला। अब यह उत्साह तो पूरा करेगा मेरा नीलसुन्दर! वह तनिक बड़ा हो जाय तो ...! वह कैसा है? कभी तो इधर से निकलेगा? एक दृष्टि उसे देख लेने की उत्कण्ठा तो स्वप्न में भी बनी रहती है। उसी दिन से मेरे दोनों कुमार अब यहाँ टिकते ही नहीं हैं। दोनों प्रात: उठते ही अब यमुना-पुलिन पर भाग जाना चाहते हैं। अब तक अपने यहाँ के बालकों से भी इनकी ऐसी प्रीति नहीं थी। दोनों घूम-फिर कर घर आ जाते थे और अपनी बहिन के साथ ही खेलने में लगे रहते थे। मैंने कितनी बार इन्हें चिढ़ाया, कहा- 'लड़कियों के साथ कहीं लड़के खेलते हैं; किंतु अभी ये हैं ही कितने बडे़। अपनी बहिन में तो प्राण बसते हैं इनके और वह भी तो इनको 'दादा! दादा!' करती इनके साथ ही लगी रहती है- परंतु अब ये दिन-दिन भर इसका स्मरण नहीं करते। मुझे प्रतिदिन इन्हें नन्दीश्वर पुर से बुलाने सांयकाल किसी-न-किसी को भेजना पड़ता है। |
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