नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
5. भगवती पूर्णमासी-मधुमंगल
हम दोनों वाराणसी से भाई के साथ ही निकले थे। वहाँ भगवान विश्वनाथ के उपासक भी श्रीहरि के विरोधी बन गये थे। अधिकांश ब्राह्मण तो शैव भी नहीं रहे, शाक्त हो चुके थे और काली, चामुण्डा की आराधना में उनका अनुराग था। भगवान गंगाधर की विशुद्ध सत्त्वमूर्ति राजस-तामस भावों से कलुषित अन्त:करण में कैसे आती। वे कैसे समझते कि श्रीहरि और हर अभिन्न हैं। अत: हमें वह दिव्यधाम छोड़ना पड़ा। भाई अवन्तिका चले गये और मैं इस मधुमंगल के कहने से मधुपुरी की ओर आई; किंतु यहाँ पहुँचकर यह कहने लगा- 'मथुरा नहीं-मथुरा का युवराज कंस तो असुर है। उसके तथा उसके अनुचरों के शरीर की-मन की भी दुर्गन्धि मेरी नासिका के लिए असह्य है। अत: इधर महावन में चलेंगे। गोरस की मधुरगन्ध इधर से आ रही है।' 'आपके ये कुमार बहुत दूर से गन्ध-ग्रहण कर लेते हैं।' किञ्चित हास्य के साथ एक ने कह दिया था। लेकिन मधु-मंगल सबको बहुत प्रिय लगा था। इस बालक ने भगवती को इधर आने को प्रेरणा दी, यह सुनकर तो सबका स्नेह उसके प्रति उमड़ पड़ा था। एक अन्य दिन भगवती ने कहा- 'यहाँ आकर मुझमें और मधुमंगल में भी अनेक परिवर्तन हो गये। मैं भूल ही गयी कि मैं सन्यासिनी हूँ और सांसारिक समस्याओं की चर्चा में भाग लेना मेरे लिए उचित नहीं है। मुझे तो यहाँ सब अपनी ही सन्तानें लगती हैं। मैं इनकी सुनती हूँ। इन्हें समझाती हूँ और इनकी समस्या का समाधान सोचने में समय लगाकर अपने को सार्थक मानती हूँ। वाराणसी में मधु-मंगल प्राय: मेरे समीप ही रहता था। वह कभी जाता भी था कहीं तो मेरे पास शीघ्र आ जाता था। वहाँ उसे अन्यत्र पण्डितों अथवा उनके अन्तेवासियों के साथ विद्वान बनकर बोलना पड़ता था और इस स्वाँग में उसकी रुचि नहीं थी। सरल जीवन वहाँ उसे दुर्लभ था। यहाँ आकर वह अब कहाँ रहता है, मुझे पता ही नहीं होता। रात्रि को भी वह अनेक बार किसी भी गोपगृह में सोया रहता है। उसके लिए सब गोपियाँ माँ हैं और सबके घरों का मधुर भोजन उसका अपना ही है। |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज