नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
41. विश्वकर्मा-नन्दगाँव
वन के गिरे बड़े-बड़े वृक्षों की बाह्य भाग में विशाल परिखा- वृन्दावन में तो कोई म्लान पत्र तक नहीं; किंतु ईंधन के लिए वन से किसी को शुष्क काष्ट लाने का श्रम भी क्यों करना पड़े। मध्य में पंक्ति-बद्ध बछड़े-बाँधने के लिए व्यक्त ये खूँटे- इनमें-से एक के मूल्य में भी कुबेर का सम्पूर्ण कोष अल्प है और इनके नाना आकारों में जो कला है- यह नैसर्गिक कला कृतित्व की कृत्रिमता में किसी प्रकार नहीं आ सकती। ये रत्न सौध-फूस के झोंपड़ों में पल-पल प्रतीयमान हो रहे हैं। नन्दीश्वर गिरि के उच्च पृष्ठ पर-से नीचे तक यह व्रजराज का महासदन और कालिन्दी-कूल पर उनकी यह बैठक। गृहों में तक्र-प्रवाहन की मार्ग-नालियाँ और गृह-पार्श्व में तक्र-कुण्ड। पशुओं को जल पीने की यहाँ आवश्यता कम ही पड़ेगी। गोपों की मल्ल-भूमि। स्थान-स्थान पर मोटी-पतली रज्जुओं की राशियाँ। गृहों में विशालतम गोरस भाण्ड- मैं जहाँ, जिधर देखता हूँ, मुझे एक-एक वस्तु वह चिद्घन न भी हो तो भी अपनी निर्माण-सामर्थ्य से परे की लगती है। पृथ्वी सब ओर गीले-सूखे उपलों की पंक्तियाँ अथवा उच्च पर्वताकार स्तूप। दधि-मन्थन के समय उड़ते सीकरों से, गो-स्तनों से झरते दुग्ध से सम्पूर्ण भूमि स्निग्ध, दूर तक के वृक्षों के तने वृषभों के शरीर तथा श्रृंग रगड़ने से सुचिक्कन बने। इस दिव्य भूमि में यह नित्य दृश्य अभी व्यक्त होकर पुन: अदृश्य हो गया। यह क्रमश: व्यक्त कर देगा अपने को। गोष्ठों के द्वारों पर काष्ठ के कुण्डे लगे हैं। मध्य भूमि में पर्याप्त विस्तार है, जलाशय है, सघन छाया है नीप, तमाल, कदम्ब वृक्षों की। सम्पूर्ण वातावरण आज ही माखन तप्त करके घृत बनाने की सुरभि से व्याप्त है। मुझ सुर की अत्यन्त प्रिय-पोषक यह सुरभि। इसका प्रसाद प्राप्त करके मुझे सुधा स्वादहीन लगने लगी है। अदभुत दिव्य भूमि-स्वर्गाधिप के सदन को भी संकोच हो इतने सम्पन्न, सज्जित, ज्योतिर्मय प्राण, मणि-मण्डित, रत्नभित्ति निर्मित ये गोप-भवन और साथ ही ये केवल फूसों की झोपड़ियाँ हैं। गोमयोपलिप्त स्वच्छ गोष्ठ मात्र हैं और अभी गोपियों, गोप कुमारियों ने गृह के सम्मुख रांगुली के विविध अलंकरण का अवसर तक नहीं पाया है। मैं देख सकता हूँ कि इस दिव्य धरा में संकोच-विस्तार की असीम क्षमता है। गोष्ठ, गृह-कक्ष, प्रांगण-भूमि सब अत्यन्त अल्प और बहुत विस्तीर्ण हो सकती है। आवश्यकता के अनुसार यह संकोच-विस्तार स्वत: प्राप्त करने की क्षमता विश्वकर्मा की कला में तो नहीं है। ब्रह्ममुहूर्त में मुनि-मण्डल के साथ ही प्राय: सब गोपियाँ जाग गयीं। दधि-मन्थन का मंगल शब्द! गोपों को गोदोहन करना है। धन्य भगवती योगमाया- किसी को भी तो नहीं लगता कि वह कल ही इस स्थान पर आया है। सबको अपने आवास सुपरिचित लगते हैं। जैसे ये सदा से यहीं रहते आये हैं। श्रीनन्दनन्दन अब उठ गये हैं। इनकी चरण-वन्दना यहाँ मैं ऐसे अदृश्य रहकर ही कर सकता हूँ और अब मुझे भगवती योगमाया का संकेत यहाँ से विदा होने का प्राप्त हो गया है। इस दिव्य धरा का यह दर्शन-क्षण मेरी स्मृति में नित्य बना रहे, यहीं इन व्रजराजकुमार के पदों में मेरी प्रार्थना! |
संबंधित लेख
क्रम संख्या | पाठ का नाम | पृष्ठ संख्या |
वर्णमाला क्रमानुसार लेख खोज