नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
40. नन्दन चाचा-वृन्दावन की ओर
बालक बहुत प्रसन्न हैं। इन्हें प्रथम बार वन देखने को मिला है। कोई पुष्प, कोई फल, कोई दल, कोई तरु, वन-पशु या कोई पक्षी दीखा और राम या श्याम रानी भाभी या व्रजेश्वरी भाभी के कर खींचकर, उनके कपोल पर कर रखकर उधर दिखाते हैं अथवा किसी सखा को संकेत करते हैं। 'भैया! मैं वह फूल लूँगा!' कन्हाई ही नहीं, कोई बालक हठ करे तो कठिनाई नहीं है। पार्श्व-रक्षक तरुणों में-से कोई तोड़कर दे देगा; किंतु यह चञ्चल नीलमणि अनेक बार अड़ता है- 'चाचा! मैं वह पुष्प अपने आप तोडूँगा।' इसके शकट को वृक्ष के नीचे लाकर समझाना पड़ेगा कि 'लाल! पुष्प बहुत ऊपर हैं। वह तेरे करों में नहीं आवेगा।' मेरा कार्य बढ़ गया है। ये बालक कोई पुष्प या फल मँगाते हैं और दूसरे किसी सखा को देना चाहते हैं। मुझे ही यह मध्यस्थता करनी है। मैं पक्षियों की उपेक्षा कर दे सकता था। कोई अशुभ पक्षी दृष्टि नहीं पड़ा। कपोत, शुक, मयूर, सारिकाएँ, हंस यदि उड़कर शकटों पर आ बैठते हैं तो अच्छा ही है। अन्य शकटों पर तो ये तब बैठते हैं जब श्याम के समीप से उड़कर आते हैं अथवा वहाँ बैठने को स्थान नहीं होता। राम-श्याम इनसे उलझे रहें, इनको कुछ चुगाते चलें तो और कोई ऊधम तो नहीं करेंगे। रानी भाभी पक्षियों को कुछ-न-कुछ खिलाती चल रही हैं। कन्हाई और दाऊ भी अपने करों से कुछ दे रहे हैं और ये इनको करों से ही तो लेना चाहते हैं। हमारे दोनों ओर वन-पशुओं की पंक्ति लग गयी हैं। शशक हैं, मृग हैं, गवय हैं, भल्लूक हैं, केशरी हैं और व्याघ्र हैं; किंतु वृक एक भी कहीं नहीं दीखा मुझे। इतने अधिक वृकों के पदचिह्न पाये गये थे; किंतु यह प्राणी कपटी है, कोलाहल से दूर रहता है। छिपकर कुटिलता-पूर्वक आक्रमण करता है। लाख-लाख गायों-वृषभों की हुंकृति, उनके गले में पड़ी घण्टियों का शब्द, शकटों की घर्र-चर्र ध्वनि, बालकों का कोलाहल भी मुझे कम लगा था। मैंने गोपों को कह दिया है कि एक यूथ का शृंगनाद समाप्त होते ही दूसरा यूथ प्रारम्भ कर दे। इस गगन-गुंजित करते अविराम कोलाहल में वृक समीप आने का साहस नहीं कर सकते। |
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