नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
39. उपनन्द ताऊ-गोकुल-त्याग का प्रस्ताव
सब ने सदा की भाँति मेरी बात मान ली। हम कल प्रभात में ही चल पड़ेंगे, यह निश्चय हो गया। सबसे छोटे भाई नन्दन और उनसे बड़े सन्नन्द पर व्यवस्था का भार छोड़कर मैंने नन्दराय को साथ लिया; क्योंकि अभी महर्षि शाण्डिल्य तथा सभी ऋषि-मुनियों को साथ चलने को प्रस्तुत करना था। हम किसी भी प्रकार उनको त्यागकर तो जा नहीं सकते थे। 'वत्स! मैं स्वयं तुमसे मिलने आ रहा था।' हम दोनों प्रणाम करके बैठे ही थे कि महर्षि ने कहा- 'मैंने आज मध्याह्नोत्तर सभी विप्रवर्ग को बुलाया था। प्रात: वृकोपद्रव का समाचार पाकर मुझे चिन्ता हो गयी। हिंसक पशु, मूषक, शुक एवं अन्य ऐसे प्राणियों की वृद्धि जो मानव की आजीविका तथा जीवन के लिए आतंक बनने वाले हों आधिदैविक उत्पातों में ही गणना की जाती है। अकाल, महामारी आदि के समान इनके प्रतिकार का दायित्व भी हम ब्राह्मणों पर ही है।' यजमान के हित को उससे भी पहिले सोच लेने के कारण ही पुरोहित का यह नाम सार्थक है। महर्षि शाण्डिल्य इसमें प्रमाद कर नहीं सकते थे। हम गोपों पर उनका अपार वात्सल्य है। भूल मेरी ही है, मुझे पहिले इन श्रीचरणों में आना था। 'मुझे बहुत दु:ख है वत्स!' महर्षि ने कुछ सखेद स्वर में कहा- 'हममें-से कोई ऋषि या मुनि ध्यान में एकाग्र होकर भी इन वृकों के स्वरूप को समझ नहीं सका। हम सब अपनी अथवा अपने यजमानों में भी किसी-की ऐसी त्रुटि नहीं देखते, जिससे यहाँ किसी देवता का कोप मूर्तिमान बने। अत: हम सबने यही सम्मति देना निश्चित किया है कि तुम सबको अब गोकुल त्यान देना चाहिये! सम्भवत: भगवान नारायण की यही इच्छा है।' हमारा कार्य सुगम हो गया। महर्षि सबके साथ प्रात: सन्ध्या समाप्त करके ही प्रस्थान कर देंगे, यह निश्चय हो गया। |
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