नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. महर्षि शाण्डिल्य-कुल परिचय
हम केवल प्रार्थना-अनुष्ठान कर सकते थे और कर रहे थे। वर्षों तक हमने यह किया। हमारे यज्ञ, जप, तप, व्रत सबका एक ही उद्देश्य बन गया- व्रजराज नन्द को तनय प्राप्त हो; किंतु वह जो उनका तनय होकर आनेवाला था, वह सर्वतन्त्र स्वतन्त्र किसी के भी, कितने भी काल के, कैसे भी कठिन तप, ध्यान, यज्ञ से साध्य नहीं बनता। सम्पूर्ण सृष्टि के समस्त सत्त्वगुणी प्राणियों का कल्पान्त सतत कठोर साधन भी उसे विवश नहीं करता। व्रज के सब गोप और गोपियाँ व्रत, प्रार्थना, पूजन में लगे थे कि उनको युवराज प्राप्त हो; किंतु जब हम वेदज्ञ ब्रह्मर्षियों, तपस्वियों के प्रयत्न ही सफल नहीं हो रहे थे तो वे तो अशिक्षित अथवा अल्पशिक्षित सरल, सीधे, श्रद्धालु, गृह तथा अपनी गौओं को लेकर बहुत व्यस्त रहनेवाले लोग थे। परीक्षित! सम्भव है, मैं यहाँ भूल कर रहा होऊँ; क्योंकि उस प्रेमधन को किसी की तपस्या तथा विद्या प्रभावित नहीं करती; किंतु इन गोपों, गोपियों के प्रेम ने उसे कैसे नचाया, यह तो मैंने प्रत्यक्ष देखा है। वह प्रेमपरवश बहुत करके इनकी ही प्रार्थना से द्रवित हुआ। क्योंकि वह श्रुतियों के सस्वर स्तोत्र भले अनसुना कर दे, गौओं की सप्रेम प्रत्येक हुंकृति पर बोलते उसे मैंने सुना है। मैं यह निश्चयपूर्वक कह सकता हूँ कि हम तपस्वी, साधन-सम्पन्न ब्राह्मणों की उपासना-प्रार्थना असमर्थ हो गयी होती, असमर्थ ही थी; किंतु उसके अपने भोले गोप उसे पुकार रहे थे। उसको अंक में लेने को आतुर गोपियों के कण्ठ उसको पुकारते-पुकारते सूख रहे थे। अत: वह अपने नित्य गोलोक धाम में स्थिर रह नहीं सकता था। व्रजधरा उसे पुकारे तो वह व्रज-युवराज आविभूर्त हुए बिना रह कैसे सकता है। अत: हमारे मध्य आश्वासन बनकर एक दिन अकस्मात भगवती पूर्णमासी आ गयीं। |
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