नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
35. यमलार्जुन
दाऊ- इनके उग्रज दाऊ यहाँ होते तो क्या मैया इन्हें बाँध पाती? मैया भी दाऊ के रुष्ट होने से डरती ही हैं। वे बल इस रज्जु को कब की तोड़ फेंके होते। कौन जाने ऊखल को ही पटक कर फोड़ देते! कितना स्नेह करते हैं अपने इन अजुज से। दिन में सोते भी हैं तो एक शय्यापर साथ। दोनों भाई एक ही आसन पर सटकर बैठते हैं। एक ही पात्र में भोजन करते हैं। इतना सौहार्द्र तो हम दोनों भाईयों में भी नहीं रहा है। रात्रि को भी सो जाने पर ही माताएँ दोनों को अपनी-अपनी शय्यापर ले जा पाती हैं। दोनों को समान खिलौने, आभरण पसन्द हैं। हमें वह स्नेह स्मरण है- मैया ने दोनों के कर्णों में मणि-कुण्डल पहिना दिये थे। हमारे ही नीचे ये नवघनसुन्दर हँसते-कूदते अग्रज के वामपार्श्व से सटकर बैठ गये। ये सदा उनके वामपार्श्व से ही सटकर बैठते अथवा खड़े होते हैं। बैठें या खड़े हों, उनके विशाल कन्धे पर अपना सिर धर देंगे, तब कुछ कहेंगे उनके कान में या केवल सिर हिलाकर हँसेंगे। उस दिन अग्रज का कुण्डल इनकी अलकों में उलझ गया। पता लगते ही इन्हें दोनों भुजाओं से पकड़े, इनके सिर से सिर सटाये वे गये माता के समीप और उसी दिन उन्होंने हठ करके बाप कर्ण का कुण्डल उतरवा दिया। तब-से वे केलव दक्षिण कर्ण में ही कुण्डल धारण करते हैं। आज वे दाऊ होते- किंतु आज तो वे ब्रजराज के साथ पुर के बाहर प्रात:काल से पूर्व ही चले गये इन्द्रयाग के स्थान पर। वहाँ से तो उनके मध्याह्न से पूर्व लौटने की सम्भावना नहीं है! ये रो रहे हैं, सखाओं को पुकार रहे हैं! भद्र भी नहीं है और तोक भी नहीं। केवल ये कुछ छोटे बालक हैं। सब मिलकर प्रयत्न में लगे हैं रज्जु खोलने के। मैया की बाँधी सुदृढ़ ग्रन्थि शिशुओं के नन्हें करों से खुलेगी! सब शीघ्र निराश हो गये- 'कनूँ! यह तो नहीं खुलती!' इन्होंने शिशुओं के प्रयत्न के साथ ही रुदन बन्द कर दिया था। सिर झुकाकर ग्रन्थि की ओर देखने लगे थे। बोले- 'तुम सब एक ओर हटो। मैं ऊखल को गिराऊँगा!' बालकों ने भी सहायता की और ऊखल गिर गया। अब घुटनों के सहारे ऊखल को, घसीटते ये दामोदर धीरे-धीरे सरकने लगे। |
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