नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. उर्वशी-ऊखल-बन्धन
'यशोदा!' अच्छा हुआ कि ये उपनन्द पत्नी आ गयी इस अवसर पर। अब अपनी इन जेठानी को तो व्रजेश्वरी डाँट नहीं सकतीं। ये ताई क्या अपने नीलमणि को बँधा रहने देंगी। 'जीजी!' मैया ने पद-वन्दना की। हाथ पकड़कर एक ओर ले आयीं- 'इसने बहुत ऊधम किया है। मैंने धमका दिया, दौड़ाकर पकड़ा। अब बहुत डर गया है। अभी आप खोल देंगी तो पता नहीं कहाँ भाग जायेगा। मैं कहाँ ढूँढूगी इसे? आप भी कहाँ ढूँढ़ेगी? क्या ठिकाना कि खुलने पर आपके साथ आयेगा ही; सबेरे से भूखा है। तनिक भी माखन इसके मुख में नहीं गया। जो माखन मैं मथकर लगभग निकाल चुकी थी, वह तो इसने फैला दिया। अब इसके कुछ कलेऊ की व्यवस्था कर लूँ तो खोल दूँगी। खोलने पर खाने-पीने में लगेगा तो भय, रोष भूल जायगा!' उपनन्द पत्नी हँसकर सन्तुष्ट होकर चली जा रही हैं; किंतु मेरे लिए इनका यह दामोदर स्वरूप देखते रहना सम्भव नहीं है। मैं न यहाँ इनको देखे बिना रह सकती, न इस रूप में इन्हें देख सकती। अत: अब मेरा अमरावती लौट जाना ही उत्तम है। |
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