नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
34. उर्वशी-ऊखल-बन्धन
जागे सर्वेश। तनिक ऊँ-आँ करके नन्हें कर से नेत्र बन्द किये ही पार्श्व में मैया को टटोला। तनिक फिर शिथिल हुए, फिर टटोला और नेत्र खोले- जैसे सरोजश्री साक्षत् हो गयी। ग्रीवा घुमाने के लिए उत्तान हुए। पद चलाकर पीताम्बर पदों की ओर हटा दिया और अब ग्रीवा मोड़कर मैया को देखने लगे हैं। नन्हा-सा मुख खुला जम्हाई लेते! उज्ज्वल दन्तावली! करों के पृष्ठ भाग से नेत्र मलने लगे हैं। फैल गया कपोलों तक अञ्जन। दोनों करों के पृष्ठ पर भी लग गया है। पुकारते हैं- 'मैया!' मैया कहाँ सुनती है। वे तन्मयी हो गयीं इनके गुण-गान में। अब ये पेट के बल होकर शैय्या से उतरने लगे हैं। इनके ये सुकुमार अरुण-चरण! मन करता है कि अपनी हथेली रख दूँ कि चरण ये उन-पर रखें। नेत्र मलते, जम्हाई लेते, डगमग पदों से ये चल पड़े हैं! 'मैया!' पीछे से जाकर ब्रजेश्वरी के पद पकडे़ दोनों भुजाएँ फैलाकर मैया ने मुड़कर देख लिया है। लेकिन दधि-भाण्ड में झाँकती हैं- 'तू तनिक रुक! अभी नवनीत ऊपर आ रहा है। मेरा लाल माखन खायगा!' 'दूध!' यह पीछे से मैया के बाम पद की ओर आ गये हैं- 'दूध पिला!' 'लाल! अभी माखन देती हूँ!' मैया भाण्ड में देखती हैं। माखन तैर आया है, यह इनकी दृष्टि कहती है। दो-चार हाथ और, बस! 'दूध!' ये खीझे से स्वर में कहकर दधि-भाण्ड पकड़ते हैं एक हाथ से और एक हाथ बढ़ गया मथानी पकड़ने को। इनके दिगम्बर शरीर पर जहाँ-तहाँ पड़े ये उज्ज्वल दधि-बिन्दु! नर्मल नीलनभ में नक्षत्र भी कहाँ इतनी शोभा देते हैं। अब इस कोमल कर से पकड़ी मथानी को मैया हिला तो सकती नहीं है। हँसकर रज्जु छोड़कर वहीं बैठ जाती हैं भूमि में ही। मैं आसन देने भी नहीं जा सकती। देवी शारदा संकेत से वर्जित कर रही हैं। ब्रजराजकुमार कितने क्षुधातुर हैं मैया के वात्सल्य से स्त्रवित होते पय पान के लिए। मथानी भाण्ड छोड़कर स्वयं अंक में आकर अञ्चल के भीतर मुख छिपा लिया इन्होंने। मैया की ओर बार-बार अञ्चल से सिर निकालकर सस्मित देखते हैं। मैया दूध सने अरुणाधर वाले इस मुख को कितने स्नेह से देखती हैं। भगवती शारदा ने धीरे से कहा- 'कई बार ये अधर फड़काकर फूर्र करके मुख के दूध से मैया का मुख उज्ज्वल कर देते हैं।' |
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