नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
33. शारदा-उपालम्भ
अब उपालम्भ लेकर आने वालियों की संख्या बढ़ने लगी है। कुछ तो सचमुच बहाना बनाकर ही आती हैं और अपने मन-से ही नवीन-नवीन उत्पातों की उद्भावना कर लेती हैं। ये अन्तर्यामी-इनको तो सबके भाव की पूर्ति करनी है। आज वह तो उत्पात सोचकर बतला गयी, कल उसके घर वह न हो तो उसके भाव की पूर्ति कैसे होगी? उपालम्भ का प्रारम्भ किया उपनन्द-पत्नी इनकी बड़ी ताई तुंगी[1] ने। उनके धुले, लिपे-पुते प्रांगण तथा कक्षों को इन्होंने सखाओं के साथ लघुशंका करके भली प्रकार पवित्र कर दिया था। शिशु ही तो हैं सब सखा। सबेरे-सबेरे माखन, दधि, छाछ खाते रहे और छपाछप करते रहे उसी की कीच में तो नन्हें तोक को लघुशंका लग आयी। 'गोरस में मूत्र-त्याग नहीं करते!' कन्हाई ने छोटे भाई को समझाया- वह क्या स्वच्छ कक्ष है! अभी इन्हें कछनी बाँधनी कहाँ आती है। मैया बाँध देती है तो इनको वह एक उत्पात-बन्धन लगती है। झटपट खोलकर कहीं भी फेंक देते हैं। इनके दिगम्बर सखा-मण्डल में दाऊ तथा थोड़े-से बड़े सखा ही तो कछनी बाँधते हैं। तोक बहुत अल्पवय शिशु है- सबसे छोटा। उसे क्या पता कि मूत्रत्याग बैठकर किया जाता है। उसके मूत्र की धारा दीखी तो इनको एक क्रीड़ा सूझ गयी। सबसे बोले- 'देखें, किसके मूत्र की धार कितनी दूर जाती है!' इस क्रीड़ा में तार्इ का घर पवित्र हो गया। प्रभावतीजी प्रेम-मूर्ति हैं। छिपकर ही श्याम की धूम-धाम देख रही थीं। बालक माखन-दही खा लेते हैं तो उत्तम ही है। इसमें उन्हें सम्मुख आकर बाधा नहीं देना था; किंतु इस नये उत्पात ने उनको विचलित कर दिया। मन में आया- 'बालक बिगड़ने लगे हैं। इस प्रकार के उपद्रव में कोई इस नीलमणि को दु:खित होकर शाप न दे बैठे! इन सबों को डाँटना ही चाहिये।' 'तु बहुत धृष्ट हो गया है! चल, आज यशोदा से कहती हूँ!' ताई ने 'अरे! अरे! क्या करते हो सब?' कहा और सम्मुख आयी तो सब इधर-उधर हँसते, ताली बजाते भागने लगे उनके ही कक्षों में। लघुशंका प्रारम्भ हो गयी तो उसे पूर्ण तो करना था। कई कक्ष सबों ने भिगो डाले और इस पर कन्हाई अँगूठे दिखाने लगा। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ प्रभावती
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