नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
4. महर्षि शाण्डिल्य-कुल परिचय
'सो तो हैं' महीभानु दृढ़ स्वर में बोले- 'किंतु इसकी पगड़ी पर प्रथम पुष्पार्पण मैं करूँगा। पगड़ी को किरीट मेरे कर देंगे और उपहारार्पण का पहिला अवसर वृषभानु को दिया जायगा।' 'आप सम्मान्य हैं, श्रद्धेय हैं, अब विरोध कोई कैसे करता।' पर्जन्य को कहना पड़ा- 'आप जो आज्ञा करेंगे, हम सब स्वीकार ही करेंगे।' नन्दराय की शुभ्र पगड़ी को स्वकरों से हंस-पिच्छ के उज्ज्वल किरीट से महीभानुजी ने अलंकृत किया। यह अदभुत सम्मानदान सम्पन्न होते ही नन्दराय ने उठकर मुझे तथा दूसरे ब्राह्मणों को प्रणाम किया। अपने पिता को प्रणाम करके महीभानुजी के पदों में झुके तो उन्होंने पुत्र को संकेत कर दिया। वृषभानु को पदों में गिरने से पहिले ही नन्द ने हृदय से लगा लिया। महीभानुजी गद्गद कण्ठ कह गये- 'वत्स! आज से इस अपने अनुज की भी सुरक्षा तेरे ऊपर ही रही।' गोकुल का ब्रजपति इस प्रकार वृहत्सानु के अधीश्वर का अनुगत न होकर बिना कहे सम्पूर्ण ब्रज का ब्रजेश्वर हो गया और गोपनायकों ने उस दिन जो उपहार अर्पित किये-किसी सम्राट के राजसूय यज्ञ के समय उसके अनुगत नृपगण भी कदाचित ही इतने उपहार अर्पित कर पाते होंगे। इतना पुनीत प्रेम तो अन्यत्र प्राप्त होना असम्भव ही है। प्रत्येक गोप में ऐसा उत्साह था, जैसे वह स्वयं ब्रजपति हो गया हो और प्रत्येक वृद्धा गोपी को यशोदा अपनी ही पुत्र-वधू लगती थी। सब उसे सजाने में, अलंकार देने में जुटी थीं और वह संकोचमयी केवल सबके पदों में अञ्चल रखकर प्रणत ही तो हो सकती थी। जो बड़ी थीं वे और जो छोटी थीं वे भी आज अपनी सम्पूर्ण साध पूरी कर लेना चाहती थीं। इतना स्नेह मनुष्य का अपने अत्यन्त प्रिय स्वजन के प्रति भी मैंने कम सुना है। उसी दिन देखा मैंने कि अधिपति को कितना उदार तथा सावधान होना चाहिए। नन्दराय ने चुपचाप अपने दोनों अनुजों को बुलाकर कुछ समझा दिया। यही किया यशोदा ने। उन्होंने अपनी देवरानियों के साथ दोनों ननदों को भी कुछ कहा उनके कानों में और गोपों को, गोपियों को, वृहत्सानु के स्वामी तक को भी पीछे पता लगा कि नवब्रजपति अथवा नूतन ब्रजेश्वरी के उपहार उनके गृहों-गोष्ठों में कितने अधिक उनके घर पहुँचने से पूर्व ही पहुँच गये हैं। |
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