नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
2. अपनी बात
केवल तब-जबकि अन्तर, विपत्ति की व्याकुलता में अथवा वियोग की वह्नि में विक्षिप्त हो उठे, ऐश्वर्य स्मरण आता है; किन्तु बहुत क्षण-स्थायी होती है ऐश्वर्य की स्मृति। जैसे व्रज के लोगों के मानस में ऐश्वर्य बहुत डरते-डरते, बहुत संकोच-पूर्वक कभी आता है और वहाँ प्रेम के देवता को प्रतिष्ठित देखते ही भाग खड़ा होता है। वैसे भी भावुक भक्तों का भाव है कि श्रीव्रजेशतनय तो व्रजभूमि त्याग कर कहीं एक पग भी नहीं जाते। व्रज में जो ऐश्वर्य यदा-कदा प्रकट भी हुआ, वह उनका नहीं है। उनमें आविष्ट श्रीवासुदेव का है वह, और वे वासुदेव ही फिर मथुरा, द्वारिका, इन्द्रप्रस्थ, कुरुक्षेत्र, हस्तिनापुर आदि की लीलाएँ करते हैं। भूभार-हरण उनका ही कार्य है। श्रीयशोदा कुमार तो भक्त-हृदय-धन हैं। वे केवल प्रेम परिपूत प्राणों को सनाथ करने के लिए कभी कदाचित अपनी नित्य, चिन्मय लीला का आविर्भाव करते हैं।
यह व्रजचरित श्रवण, स्मरण, चिन्तन के लिए है। यह न अनुकरणीय है, न उपदेश है और न कहीं आदर्श की स्थापना। यह तो मानस में आवे तो वह प्राणी माया के मोह-जाल से निमुक्त हो जाय। यह ध्येय, ज्ञेय, चिन्तनीय है। इसलिये इस खण्ड को पृथक ही रखना मुझे अच्छा लगा और अन्त में भी रखना; क्योंकि धर्म, योग, ज्ञान का परिपाक-परमफल है नन्दनन्दन का अनुराग। ऐश्वर्य के चिन्तन से पवित्र हृदय में इस लीला का आविर्भाव संभव है। |
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्रीमद्भागवत 10.33.37
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