नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
31. अश्विनी कुमार-कर्ण-वेध
व्रजपति का वात्सल्य-केवल सूचिका स्पर्श कराना है उन्हें शिशुओं के कर्णों से और उनके कर कम्पित हो रहे हैं। सब शिशुओं के कर्णों से उन्हीं को सूचिका-स्पर्श कराना पड़ा। व्रज में तो सब इन्हीं के कुमार हैं। व्यर्थ गर्व करते हैं हम सुर अपने कौशल का। गोकुल का यह वृद्ध स्वर्णकार-कितना सूक्ष्म लाक्षाविन्दु अंकित किया है इसने शिशुओं की कर्णपल्ली पर! कितने कोमल ढंग से शिशु की कर्णपल्ली खींचकर जहाँ से सूर्य-रश्मि पारदर्शी हो रही है, ठीक उसी बिन्दु पर लाक्षाद्रव का चिह्न और सब शिशुओं के कर्णों पर इतनी शीघ्र चिह्नांकन। श्रीव्रजराजकुमार ने भी कोई आपत्ति नहीं की अपनी कर्णपल्ली खींचे जाने पर। लाक्षाद्रव का विन्दु शीतल लगा होगा। बहुत प्रसन्न-'हो गया क्या?' अग्रज के कर्णों की ओर ही दृष्टि लगाये हैं। श्रीव्रजेश्वरी कर पकड़कर न रोकतीं तो ये अपने कर्णपल्ली टटोल ही लेना चाहते थे। इनकी कर्णपल्ली पर नन्हीं लाक्षाबिन्दु लगता है कि इन्दीवर दल पर सद्योजात वीरवधूटी रो रही है। रक्त से अरुण इन विन्दुओं को देखकर ब्रजराज ने तो अपने नेत्र ही बन्द कर लिए हैं। वाद्यो उच्च ध्वनि- महर्षि ने अपने मुख से शंख लगा लिया! भगवान महेश्वर सहायता करें! हम दोनों ने सूचिकाएँ उठा लीं! बालक की रोदन-ध्वनि सुनायी नही पड़नी चाहिये। वाम हाथ से कर्णपल्ली खींचकर हम दानों ने एक साथ दाऊ के लाक्षाद्रवांकित स्थान पर सूचिका लगायी और वह स्वत: प्रविष्ट होती चली गयी। हमें केवल सूत्र बाँधकर तेल लगा देना था। दाऊ- ये अनन्त क्या रोते! उन्होंने तो प्रसन्न दृष्टि से हम दोनों की ओर देखा- 'बस!' 'दाऊ तो रोता नहीं। भ्रद कुण्डल पहिनेगा और तुझे चिढ़ावेगा!' मैया समझाने लगीं। सोचने से लगे लीलामय- 'भद्र सचमुच चिढ़ावेगा कुण्डल पहिनकर!' 'मैं अपने कुमार के कानों में औषधि मलूँगा!' मैंने पुचकारा। बड़े उल्लास से बोला- 'छिद्र औषधि से हो जायगा?' 'अभी हुआ जाता है!' मैंने औघधि लगाते हुए कर्णपल्ली खींच ली थी। कहा- 'तुम्हारी वह स्वर्णिम बिल्ली कहाँ है? मुझे दिखा तो दो!' तनिक ध्यान बँटा और हम दोनों के करों की सूचिका कर्णपल्ली पार गयीं। इसने सूत्र बाँधकर औषधीय तैल लगा दिया। अब साहस नहीं था इनके रुदन को देखने का। हम दोनों का सौभाग्य- हमें अन्य बालकों का भी कर्ण-वेध करना था और वह सम्पूर्ण एकाग्रता चाहता था। |
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