नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
30. मल्लिका मौसी-सर्वप्रिय
स्वामी को कलेऊ देकर मैं आज दधि-मन्थन करने द्वार के सम्मुख ही खड़ी हुई थी। कन्हाई गृह के सम्मुख से भी निकले तो मैं उसे पुकार लूँगी। इतना तो नहीं रूठा होगा कि पुकारने पर भी न आवे। मुझे बहुत निराशा हुई- कितना दु:ख हुआ, कैसे कहूँ। कन्हाई नहीं आया। दिन चढ़ आया और वह नहीं आया। प्रतिदिन इससे बहुत पहिले आ जाता था। कल मैंने इतना खिझाया है, व्रजराज का कुमार है- शिशु हुआ तो क्या। मुझ सामान्य गोपी का इतना उलझना कैसे सहेगा। अब वह नहीं आवेगा। गोष्ठ भी स्वच्छ करना है, यह मुझे कहाँ स्मरण था। मैं तो दधिपात्र में ऊपर माखन तैर आया तब से पात्र लिए पथपर नेत्र लगाये बैठी थी। माखन मैं पात्र से निकाल लेती तो उतना कोमल नहीं रह जाता; किंतु श्याम नहीं आया। जो नवनीत नीलमणि खाने नहीं आ रहा है, उसे बन्दर खाय, बिल्ली खाय, श्वान खाय- कोई खाय, उसका मुझे करना क्या था। मैंने घट उठाया और वैसे ही खुला द्वारा छोड़कर यमुना चली गयी। मन में तो आता था कि कालिन्दी में प्रवेश करेक शरीर ही छोड़ दूँ; किंतु कन्हाई को एक दृष्टि देखने की लालसा ने यह नहीं करने दिया। वह नहीं आता मेरे घर तो मैं जीजी के यहाँ जाकर तो उसे देख सकती हूँ। मैं स्नान करके, घट भरकर लौटी। बहुत भरा-भरा मन था। 'पता नहीं अब कभी नीलमणि मेरे घर आवेगा भी या नहीं।' इसी चिन्ता में चली आ रही थी। दूर से अपने द्वार पर दृष्टि गयी और मैं ठिठक-कर खड़ी हो गयी। मुझे सृष्टिकर्त्ता इससे बड़ा कोई वरदान नहीं दे सकता था। श्याम मेरे घर आ गया था। वह द्वार की ओर पीठ करके दधि-मन्थन-पात्र के समीप दोनों पैर फैलाये बैठा था। पीठ पर घुँघराली अलकें फैली थीं। एक पैर मोड़कर घुटनों के बल एक हाथ से पात्र पकड़कर उठा और पात्र में उझककर दाहिने कर से तनिक-सा नवनीत निकाल कर मुख में डाला इसने। |
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