नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
29. अभिनन्द ताऊ-सेवा-सम्मान
केवल महर्षि की, ब्राह्मणों की या बड़े ताऊ की सेवा तक की बात नहीं है। अब इसे सबकी ही सेवा की धुन चढ़ी ही रहती है। वैसे किसकी क्या सेवा कब करनी है, यह शिशु के समझ की बात तो नहीं है। इसे जो सेवा जिसकी जब सूझ जाय- यह सेवा करने का उत्साही कितना है, यह देखकर मेरा मानस विभोर होता है। हमारा यह युवराज- इतनी सेवा, शीलता, बड़ों का सम्मान इस शैशव में? 'बाबा! तुम पूजा करोगे? मैं तुलसी-दल लाऊँ?' बाबा की पूजा के लिए कभी इसे तुलसी-दल लाना है, कभी दूर्वा-दल। देखता हूँ कि कभी मैया के लिए, किसी माँ, ताई, चाची या बुआ के लिए वेणी में लगाने को पुष्प-चयन करने में लगा है। इसे जब जिसका जो काम सूझ जाय, वही करने पहुँच जाता है। 'ताऊ! तुम स्नान करोगे? तुम्हारा वस्त्र लाऊँ?' ताऊ दिन भर स्नान नहीं कर सकते; किंतु नन्हें कन्हाई को क्या पता कि ताऊ के स्नान का समय कब होता है। इसे तो वस्त्र ले आना है ताऊ के घर से। 'चाचा! तुम्हारा लकुट लाऊँ? तुम वन में जा रहे हो?' इतना जानता है कि चाचा वन में जाते हैं तो लकुट ले जाते हैं। अब इससे वह भारी लकुट उठेगा नन्दन का। इसके साथ जाना चाहिये उन्हें; अन्यथा बालक लकुट उठाने के प्रयत्न में उसे अपने ऊपर ही कहीं गिरा लेगा। इसे किसी को दोहनी देनी रहती है, किसी को रज्जु या जल, किसी को बुलाना होता है। किसी का सन्देश देना होता है किसी को। गोपों के गोपियों के पता नहीं कितने काम हैं जो इसी के बिना अटके रहते हैं। मेरे श्मश्रु में ही तृण उलझे रहते हैं और यह अंक में बैठकर उन्हें निकाले नहीं तो वे क्या निकलेंगे? उन्हें मैं क्या यों ही निकलने को उलझाता हूँ। |
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