नन्दनन्दन -सुदर्शन सिंह 'चक्र'
29. अभिनन्द ताऊ-सेवा-सम्मान
मेरी पत्नी वैसे भी प्रबन्ध तथा गृह-व्यवस्था में शिथिल है। वह अपने दोनों पुत्र देवरानी को देकर निश्चिन्त हो गयी है। ये दोनों भी नन्द भवन में प्रसन्न रहते हैं। नन्दनन्दन विशाल के बिना नहीं रह पाता और तेजस्वी को दाऊ ने अपना स्नेह-भाजन बना लिया है। पत्नी की बात क्यों कहूँ, मेरी अपनी भी बात तो यही है कि श्याम को देखे बिना मुझसे रहा नहीं जाता। गोचारण करने मैं केवल कैशोरावस्था में जाता था। अब तो भाई नन्दराय की गोष्ठ वाली बैठक मेरा स्थान बन गयी है। मध्याह्न में कन्हाई भवन में जाता है, तब मुझे भोजन करने अपने घर आने का स्मरण होता है। यह भी कितने दिन कर पाता हूँ? कभी वधू व्रजेश्वरी, कभी रोहिणी भाभी, कभी नन्दराय आग्रह करते हैं वहीं भोजन कर लेने का और कभी कान्ह कर पकड़ लेता है- 'दाऊ! मैं तुम्हारे साथ खाऊँगा।' यह नटखट अब भी जानबूझ-कर ताऊ को दाऊ कहता है। पहिले बोलने लगा तो 'दाऊ' कहकर कितना सिर हिलाता था कि इससे ठीक उच्चारण नहीं हो पा रहा; किंतु अब इसे 'दाऊ' कहने में आनन्द आता है। मुझे दाऊ कहेगा और फिर ताली बजाकर, सिर हिलाकर हँसेगा। कितना सरल, कितना भोला है यह सुकुमार। कोई पुकारता है- कनूँ! कान्ह! कृष्ण! श्याम! कन्हाई!- पुकारने के कितने नाम हैं, कुछ ठिकाना है। इसे तो नटखट! चञ्चल! ऊधमी! कहकर पुकारने पर भी यह ऐसे ही बोलता है, जैसे वही इसका नाम है। जो पुकारता है, उसके समीप झट दौड़ जाता है। बडे़ भाई कहते हैं- 'बच्चे में कार्य करने से शक्ति आती है। उसमें बड़ों की आज्ञा-पालन का सदगुण आना चाहिये!' बड़े भाई बहुत विद्वान हैं। उनको व्यवहार-नीति का सभी पण्डित मानते हैं; किंतु इस सुकुमार को कुछ कहने का मेरा मन नहीं होता। मुझे स्वयं भी तो शरीर से श्रम करना कभी अच्छा नहीं लगा। नन्दनन्दन क्या अभी कोई भी काम करने योग्य है? यह तो खेलने में ही बहुत अधिक श्रान्त हो जाता है। मेरा जी करता है कि यह मेरे अंक में बस बैठा रहे; किंतु इस चञ्चल को बैठे रहना ही नहीं आता। |
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